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________________ चतुर्थ सर्ग १२५ हे बुद्धिमति ! पाषाणखण्ड चूने को लाल कर देने वाली उस वर वणिनी (हरिद्रा) को देखकर तुम ऐसा विश्वास मत कर लो कि मैं भी वरणिनी (श्रेष्ठरूपरंगों वाली) हैं अतः श्रीनेमि के पाषाण हृदय को राग रञ्जित कर दूंगी। वह पाषाण खण्ड तो नाम से चुना है जो हरिद्रा के संयोग से रक्त हो जाता है, पर नेमिनाथ तो सचमुच (असली) वज्र (हीर) हैं जो मोह रूपी गाढ़े से गाढ़े रंग से भी रंगे नहीं जा सकते ॥४१।। सध्रीचीनां वचनरचनामेवमाकर्ण्य साऽथो पत्युानादवहितमतिस्तन्मयत्वं तथाऽऽपत् । सङ्ख्याताहैरधिगतमहानन्दसर्वस्वसद्मा तस्माद्भजेऽनुपमिति यथा शाश्वती सौख्यलक्ष्मीम् |४२॥ इतिश्रीजैनमेघदूतमहाकाव्ये चतुर्थः सर्गः ॥४॥ समाप्तम् सध्रीचीनां • अयो अनन्तरं सा राजीमती एवं पूर्वोक्तप्रकारेण सध्रीचीनां सखीनां वचनरचनाम् आकय अवहितमतिः सावधानमतिः सती पत्युः श्रीनेनेः ध्यानात् तथा तन्मयत्वं पतिमयत्वम् आपत् प्राप । यथा तस्मात् पत्युः ध्यानात् सङ्ख्याताहैः गणितदिवसः अनुपमिति निरुपमान यथा स्यात् तथा शाश्वतीम् अविनश्वरां सौख्यलक्ष्मी भेजे आश्रितवती । किंभूता सा--अधिगतमहानन्दसर्वस्वसद्मा अधिगतम् आश्रितं महानन्दस्य मोक्षस्य यत्सर्वस्वं रहस्यं तदेव सद्म स्थानं यया सा॥४॥ इति श्रीविधिपक्षमुख्याभिधान श्रीमदञ्चलगच्छेश श्रीजयकीतिसूरिशिष्य __पण्डितमहीमेरुगणिविरचितायां श्रीमेघदूतमहाकाव्यबालावबोध वृत्तौ चतुर्थः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीः ।। श्रीः ।। श्रीः ।। सखियों की इस प्रकार को वचन रचना (वाणी) को सुनकर राजीमती पति (नेमि) का ध्यान करतो हुई तन्मय हो गई। इसके बाद केवल ज्ञान को प्राप्त भगवान नेमि के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर पति के ध्यान में लोन होकर स्वामी की तरह ही राग-द्वेष आदि से मुक्त होकर कुछ ही दिनों में वह परमानन्द के सर्वस्व मोक्ष को प्राप्त कर अनुपम तथा अनन्त सुख को प्राप्त किया ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002122
Book TitleJain Meghdutam
Original Sutra AuthorMantungsuri
Author
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size15 MB
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