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१५६ : जैनमेघदूतम् इसमें भी हंसों का सरोवर की सेवा करना, गर्जन और विद्युत् द्वारा मेघ की सेवा करना तथा सूर्य की निर्बाध गति आदि स्वाभाविक क्रियाओं के वर्णन से स्वभावोक्ति अलङ्कार स्पष्ट होता है। इसी प्रकार आचार्य मेरुतुङ्ग ने अपने जैनमेघदूतम् में स्वभावोक्ति अलङ्कार के चार अन्य प्रयोग' भी प्रस्तुत किये हैं।
सहोक्ति-सहोक्ति अलङ्कार का निरूपण करते हुए काव्यप्रकाशकार मम्मट लक्षण देते हैं कि जहाँ सह शब्द के अर्थ की सामर्थ्य से एक पद दो का वाचक हो, वहाँ सहोक्ति अलङ्कार होता है
___ सा सहोक्तिः सहाथस्य बलादेकं द्विवाचकम् । अर्थात् एकार्थवाचक होने पर भी जो सहार्थ से दोनों का बोधक होता है, वह सहोक्ति अलङ्कार होता है । जहाँ जिन वस्तुओं का सहभाव वर्णित होता है, उनमें से एक प्रधान और दूसरा अप्रधान होता है एवं "सहयुक्तेऽप्रषाने'' इस पाणिनिसूत्र के अनुसार अप्रधान में तृतीया तथा प्रधान में प्रथमा विभक्ति का प्रयोग होता है । इस प्रकार “सह" शब्द के प्रयोग से जहाँ काव्योचित विशेष चमत्कार हो जाता है, वहाँ सहोक्ति अलङ्कार हो जाता है। .
आचार्य मेरुतुङ्ग ने जैनमेघदूतम् में सहोक्ति अलङ्कार के अत्यल्प प्रयोग नियोजित किये हैं। मात्र तीन प्रयोगों में से सहोक्ति अलङ्कार का एक प्रयोग यहाँ प्रस्तुत है. वृद्धि भेजे दिवसमनिशं स्वप्रतापेन सत्रा . . शीतत्वेनापि च तलिनतां वासतेयी विवेश ॥ अर्थात् दिन निरन्तर अपने प्रताप के साथ बढ़ता रहा पर रात्रि शीतलता के साथ छोटी होती गई । यहाँ इस श्लोकार्द्ध में 'स्वप्रतापेन सत्रा' के कथन से सहोक्ति अलङ्कार स्पष्ट हो रहा है। सत्रा का अर्थ साकं (साथ) है।
इसी प्रकार जैनमेघदूतम् में सहोक्ति अलङ्कार के अन्य दो प्रयोग भी अत्यन्त प्रशंसनीय हैं। १. जैनमेघदूतम्, १/१२, १६, १८, २१२ । २. काव्यप्रकाश, १०/११२। ३. जैनमेघदूतम्, २/३१ ।। ४. वही, १/१९; २/३६ ।।
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