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________________ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन और शुभाशुभ का विवेक साधना के राजमार्ग पर बढ़ने के लिए आवश्यक है। ज्ञान की साधनात्मक जीवन में क्या आवश्यकता है? इस पर प्रकाश डालते हुए दशवैकालिक में कहा गया है- जो आत्मा और अनात्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है, ऐसा ज्ञानराज साधक साधना (संयम) के स्वरूप को भली-भाँति जान लेता है, क्योंकि जो आत्मस्वरूप और जड़स्वरूप को यथार्थ रूप से जानता है, वह इस परिभ्रमण के कारणरूप पुण्य,पाप, बन्धन तथा मोक्ष के स्वरूप को भी जान लेता है। फलत: साधक भोगों की निस्सारता को समझ लेता है और उनसे विरक्त हो जाता है। भोगों से विरक्त होने पर वह बाह्य और आन्तरिक सांसारिक संयोगों को छोड़कर मुनिचर्या धारण कर लेता है। तत्पश्चात् उत्कृष्ट संवर अर्थात् वासनाओं के नियन्त्रण से अनुत्तर धर्म का आस्वादन करता है, जिससे वह अज्ञान कालिमा-जन्य कर्म-मल को झाड़ देता है तथा केवलज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त कर मुक्ति-लाभ करता है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन में कहा गया है कि ज्ञान अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्टकर सर्वतथ्यों की यथार्थता को प्रकाशित करता है।४९ आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार ज्ञान ही मानव जीवन का सार है।५० इस प्रकार तत्त्व के स्वरूप को समझने का एक ही मार्ग है और वह हैज्ञान। जैन नैतिकता यह बताती है कि जिस ज्ञान से स्वरूप का बोध नहीं होता, वह ज्ञान साधना में उपयोगी नहीं है। अल्पतम सम्यग्ज्ञान भी साधना के लिए श्रेष्ठ है। जैन मान्यता के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते हैं- (१) यथार्थ ज्ञान (सम्यक्-ज्ञान) तथा (२) अयथार्थ ज्ञान (असम्यक्-ज्ञान)। परन्तु ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता का आधार क्या है? व्यक्ति यह कैसे निर्धारित करे कि कौन-सा ज्ञान यथार्थ है तथा कौन-सा ज्ञान अयथार्थ है। जैनाचार्यों ने ज्ञान की यथार्थता और अयथार्थता का आधार प्रस्तुत करते हुए कहा है कि तीर्थंकरों के उपदेशरूप गणधर प्रणीत जैनागम यथार्थज्ञान है और शेष मिथ्याज्ञान।५१ किन्तु बाद में जैनाचार्यों की दृष्टि परिवर्तित हुई और उनलोगों ने कहा कि व्यक्ति का दृष्टिकोण यदि शुद्ध है, सत्यान्वेषी है तो उसको जो भी ज्ञान प्राप्त होगा, वह सम्यग्ज्ञान होगा। ठीक इसके विपरीत यदि उसका दृष्टिकोण दुराग्रह से युक्त होगा तो उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान होगा। अभिधानराजेन्द्र कोश में कहा गया है - आगम या ग्रन्थ जो शब्दों के संयोग से निर्मित हुए हैं, वे अपने आप में न तो सम्यक् हैं और न मिथ्या, उनका सम्यक् या मिथ्या होना तो अध्येता के दृष्टिकोण पर निर्भर है। एक यथार्थ दृष्टिकोणवाले के लिए मिथ्याश्रुत (जैनेतर परम्परा के ग्रंथ) भी सम्यक्-श्रुत है, जबकि एक मिथ्यादृष्टि के लिए सम्यक्-श्रुत भी मिथ्याश्रुत है।५२ अत: यह स्पष्ट होता है कि ज्ञान की सम्यक्तया की कसौटी आप्तवचन है, चाहे वह किसी भी परम्परा का हो। आप्तपुरुष वह है जो रागद्वेष से रहित वीतराग या अर्हतत्व को प्राप्त कर चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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