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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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धर्मों का आधार है । १०७ यह क्षेम, नेष्ठिक अच्युत पद १०८ एवं शान्त और शिव१०९ तथा दुर्लभ, शान्त, अजर, अमृत और परमपद ११० है । मिलिन्दपन्ह में राजा मिलिन्द और नागसेन के बीच हुई वार्ता में नागसेन ने निर्वाण को कुछ इस रूप में प्रस्तुत किया है— “महाराज ! निर्वाण आत्यन्तिक सुख है वह दुःख से सर्वथा अमिश्रित है। यद्यपि स्वरूपतः निर्वाण का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि वह अनिर्वचनीय है तथापि गुणत: उसका किञ्चित वर्णन किया जा सकता है। महाराज जिस प्रकार महासमुद्र में बड़े-बड़े जीव रहते हैं फिर भी समुद्र उन जीवों से अलिप्त रहता है, वैसे ही निर्वाण समस्त क्लेशों से अलिप्त है। यह निर्वाण न उत्पन्न है, न अनुत्पन्न है और न उत्पादनीय है। यह निर्वाण धातु परमशान्ति है, परमानन्द है, अत्युत्तम है, अद्वितीय है । १११
नागार्जुन ने निर्वाण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि यदि निर्वाण को भावरूप माना जाता है तो वह भी अन्य भावों के समान जन्म मरणशील तथा संस्कृत धर्म बन जायेगा। यदि उसे अभावरूप माना जाता है तो उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं रहेगी, साथ ही अभाव भाव सापेक्ष होता है। इसलिए यदि निर्वाण को अभाव माना जाता है तो वह भाव-सापेक्ष धर्म हो जायेगा। इसी प्रकार निर्वाण को भावाभाव भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रकाश और अंधकार के समान भाव और अभाव की सत्ता एक साथ नहीं हो सकती और यदि हम निर्वाण को भावाभाव भिन्न स्वीकार करते हैं, तो फिर उसका ज्ञान होना असंभव है।११२ अतः निर्वाण प्रपंचोपशम और शिव, स्वानुभूतिगम्य है। निर्वाण ही प्रतीति और उपादान की दृष्टि से आवागमन रूपी संसार है और वही अप्रतीत्य और अनुपादान की दृष्टि से निर्वाण है। संसार और निर्वाण में रंचमात्र भी अन्तर नहीं है । ११३ निर्वाण निरपेक्ष और अनिर्वचनीय तत्त्व है।
सम्प्रति, प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यदि निर्वाण का निर्वचन नहीं हो सकता है तो फिर उसका उपदेश कैसे दिया जा सकता है ? इसका उत्तर देते हुए नागार्जुन ने कहा है कि “वैसे तो परमार्थ तक बुद्धि और वाणी की गति नहीं है, अनिर्वचनीय का निर्वचन और अनक्षर का अक्षरोपदेश पूर्णतया सम्भव नहीं है, तथापि परमार्थ - प्राप्ति के लिए सम्यक् - सम्बुद्ध-व्यवहारदशा में उपदेश देते हैं, क्योंकि व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश नहीं दिया जा सकता और बिना परमार्थ को जाने निर्वाण प्राप्ति असंभव है । ११४ उपचार से व्यवहार में तत्त्व का उपदेश और श्रवण-मनन होता है । ११५ नागार्जुन ने निर्वाण के लिए 'तत्त्व' शब्द का प्रयोग किया है तथा उसका लक्षण बताते हुए कहा है कि जिसका अपरोक्षानुभूति द्वारा ही साक्षात किया जा सकता है, जहाँ बुद्धि की सारी कोटियाँ, कल्पनाएं, धारणाएं सन्तुष्ट होकर शान्त हो जाती हैं, जो सम्पूर्ण प्रपंच से शून्य है,
जो
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