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________________ बन्धन एवं मोक्ष २९७ करता हूँ और सभी प्राणी मेरे अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें। सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है।४ मार्दव-ऐसा आचरण जिससे व्यक्ति अपने को दूसरों से बड़ा न समझें, या जिससे अपनी प्रशंसा और सम्मान की चाह न हो, वह मार्दवधर्म का द्योतक है। तत्त्वार्थसूत्र में इसे परिभाषित करते हए कहा गया है- चित्त में मृदुता और व्यवहार में नम्रवृत्ति का होना मार्दव गुण है। इसकी सिद्धि के लिए जाति, कुल, रूप, ऐश्वर्य, विज्ञान (बुद्धि), श्रुत (शास्त्र लाभ), वीर्य (शक्ति) के विषय में गर्वित न होना और इन वस्तुओं की विनश्वरता का विचार करके अभिमान के काँटे को निकाल फेंकना मार्दव धर्म है।७५ आर्जव-भाव की विशुद्धि अर्थात् विचार, भाषण और व्यवहार की एकता आर्जव गुण है"६ या दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है- आचरण में मन,वचन और कर्म में एकरूपता होना आर्जव धर्म का द्योतक है। परन्तु इसकी प्राप्ति के लिए मन में भावों की निर्मलता और अभिप्राय का शुभ होना आवश्यक है। शौच-साधारणतया शौच का अर्थ शुद्धता या सफाई से ग्रहण किया जाता है, लेकिन यहाँ मात्र बाहरी या शारीरिक शुद्धता से नहीं बल्कि शौच का अर्थ आत्मिक शुद्धि से है। इतना ही नहीं धर्म के साधनों तथा शरीर तक में भी आसक्ति न रखना शौच है।७७ सत्य-सत्पुरुषों के लिए हितकारी व यथार्थ वचन बोलना ही सत्य वचन है।" दूसरी भाषा में जो वास्तविक रूप में है उसे वैसा ही जानना, वैसा ही मानना, वैसा ही कहना और उसको वैसे ही आचरण में लाना सत्य धर्म है। संयम- मन, वचन और काय का नियमन करना अर्थात् विचार, वाणी और गति, स्थिति आदि में सावधानी से अभ्यास करना संयम है। संयम के सतरह प्रकार बताये गये हैं- पांच इन्द्रियों का निग्रह, पांच अव्रतों का त्याग, चार कषायों की जय तथा मन, वचन और काय की विरति-ये सतरह प्रकार के संयम हैं। - तप-तप जैन साधना का प्राण है। तप को परिभाषित करते हुए पं० सुखलाल संघवी ने कहा है- मलिन वृत्तियों को निर्मूल करने के लिए, अपेक्षित शक्ति की साधना के लिए किया जानेवाला आत्मदमन तप है। दूसरी भाषा में कहा जा सकता है कि वासनाओं को क्षीण करने तथा समुचित आध्यात्मिक शक्ति की साधना के लिए शरीर, इन्द्रिय और मन को जिन-जिन उपायों से तपाया जाता है, वे सभी तप कहे जाते हैं। आगम के प्रसिद्ध चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर ने तप की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा करते हुए कहा है- तप्यते अणेण पावं कम्ममित्ति तपो ८१ अर्थात् जिस साधना से, उपासना से पापकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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