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________________ २९४ जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन (i) दानान्तराय, (ii) लाभान्तराय (iii) भोगान्तराय (iv) उपभोगान्तराय और (v) वीर्यान्तराय८॥ जैसा कि हम लोगों ने पूर्व में देखा है कि उपर्युक्त आठों कर्म घाती और अघाती कर्म में विभक्त हैं। घाती कर्म जिसमें अविद्या रूपी मोहनीय कर्म ही आत्मा की आवरित करने की क्षमता, तीव्रता और स्थितिकाल की दृष्टि से प्रमुख है। सही अर्थों में मोहनीय कर्म के कारण ही कर्मबन्ध का सतत्-प्रवाह बना रहता है। मोहनीय कर्म ही संसार-चक्र का मूल कारण है, शेष घाती कर्म उसके सहयोगी मात्र है। जिस प्रकार बीज में अंकुरण शक्ति होती हैं, किन्तु उगने हेतु उसे हवा, पानी आदि के सहयोग की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार मोह रूपी कर्मबीज व कर्म परम्परा को सतत् बनाये रखने के लिए ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय रूपी हवा, पानी आदि के सहयोग की आवश्यकता होती है। मोहकर्म के हटते ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि का पर्दा हट जाता है, सारी बाधायें हट जाती हैं और आत्मा जीवन्मुक्त हो जाती है। अघाती कर्म भूने हुए बीज की भाँति होता है जो समय की परिपक्वता के साथ ही अपना फल देकर सहज ही अलग हो जाता है। मोक्ष का स्वरूप ___जीव और पुद्गल (कर्म) के संयोग को बन्धन कहते हैं अर्थात् जीव और अजीव का संयोग बन्धन तथा दोनों का वियोग मोक्ष है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि जीव और पुद्गल का सम्बन्ध कर्म के कारण होता है और जीव का पुद्गल से वियोग भी कर्म के कारण ही होता है अर्थात् कर्मबन्धन से छूटना ही मोक्ष है। मोक्ष का निरूपण करते हुए उमास्वाति ने कहा है- बन्धन के हेतुओं का अभाव तथा निर्जरा के द्वारा सभी कर्मों का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है।५९ इसी प्रकार आचार्य तुलसी ने कहा है- समस्त कर्मों का क्षय करके आत्मा का अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना मोक्ष है।६० किन्तु यहाँ एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि कर्मबन्धन की प्रक्रिया तो अनादि है फिर इस प्रकार उसका अन्त कैसे हो सकता है? इसका उत्तर देते हुए आचार्य अकलंकदेव ने कहा है -“ जिस प्रकार बीज और अंकुर की परम्परा अनादि है, किन्तु यदि किसी बीज को अग्नि में जला दिया जाता है तो फिर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता और बीजांकुर की परम्परा का नाश हो जाता है, ठीक उसी प्रकार कर्मबन्ध के जो बीज मिथ्यादर्शन आदि हैं उनका नाश कर देने पर कर्मबन्ध नहीं होता है। "६१ । जैनदर्शन के अनुसार सभी कर्मों का क्षय हो जाना ही मोक्ष है। निर्जरा की स्थिति में चार घातीय कर्मों का क्षय हो जाता है-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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