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________________ बन्धन एवं मोक्ष २८९ को मिलते हैं। (३) सुगन्ध की संवेदना होती है। (४) सुस्वादु भोजनादि की उपलब्धि होती है। (५) मन के अनुरूप कोमल स्पर्श व आसन शयनादि की उपलब्धि होती है। (६) वांछित सुखों की प्राप्ति होती है। (७) शुभवचन, प्रशंसादि सुनने का अवसर प्राप्त होता है। (८) शारीरिक सुख मिलता है।२८ मोहनीय कर्म चेतना को विकृत या मूर्च्छित करनेवाला कर्मपुद्गल मोहनीय कर्म है। साधारण भाषा में इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जिससे आत्मा मोह को प्राप्त करती है वह मोहनीय कर्म है। इसके भी दो भेद हैं- दर्शनमोह और चारित्रमोह। जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझने या जानने का नाम दर्शन है। दर्शन तत्त्वार्थश्रद्धानरूप आत्मगुण है। इसी प्रकार जिसके द्वारा आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को प्राप्त करता है उसे चारित्र कहते हैं, अत: चारित्र को घात करनेवाला कर्म चारित्रमोहनीय कहलाता है। इस कर्म के उदय होने से व्यक्ति हित को अहित समझता है और अहित को हित। विपरीत बुद्धि के कारण उसे तत्त्व का यथार्थ बोध नहीं हो पाता।२९ मोहनीय कर्मबन्ध के कारण नवपदार्थ ज्ञानसार में मोहनीयकर्म-बन्धन के छ: कारण बताये गये हैं - (१) क्रोध, (२) अहंकार, (३) कपट,(४) लोभ,(५) अशुभाचरण और (६) विवेकाभाव। लेकिन तत्त्वार्थसूत्र में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के बन्धन के अलग-अलग कारण बताये गये हैं। जो निम्न हैं(१) दर्शनमोहनीय- केवली का अवर्णवाद (निन्दा), श्रुत का अवर्णवाद, संघ का अवर्णवाद, धर्म का अवर्णवाद और देवों का अवर्णवाद आदि। (२) चारित्रमोहनीय- (१) स्वयं कषाय करना तथा दूसरों में कषाय जगाना कषाय मोहनीय कर्म का कारण है। (२) सत्य धर्म का उपहास करना हास्य मोहनीय कर्म-बन्ध का कारण है। (३) विविध क्रीड़ाओं में रत रहना रति मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। (४) दूसरों को व्याकुल करना, किसी भी शांति में विघ्न डालना आदि अरतिमोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। (५) स्वयं शोकातुर रहना तथा दूसरों को भी शोकातुर करना शोक मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। (६) स्वयं डरना और दूसरों का डराना भय मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। (७) हितकर क्रिया और हितकर आचरण से घृणा करना जगप्सा.मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है। (८-१०) स्त्रीजाति के योग्य, पुरुष जाति के योग्य तथा नपुंसक जाति के योग्य संस्कारों का अभ्यास करना क्रमशः स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद बन्ध के कारण हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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