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जैन एवं बौद्ध योग : एक तुलनात्मक अध्ययन
क्षीणकषाय(मोह) गुणस्थान
इस गुणस्थान में साधक के मन में नैतिकता एवं अनैतिकता के बीच होनेवाला संघर्ष हमेशा के लिए शांत हो जाता है, कारण कि उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। इस गुणस्थान में आनेवाला साधक मोहकर्म की २८ प्रवृत्तियों को पूर्ण रूप से समाप्त कर देता है, इसीलिए इस गुणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। इस स्थिति में पहुँचने के बाद साधक के लिए कोई भी नैतिक कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है। साधक दशवें गुणस्थान में बचे हुए अवशेष सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे बारहवें गुणस्थान में आ जाता है। अत: विकास की इस श्रेणी में पतन का कोई भय नहीं रह जाता। साधक विकास की अग्रिम भूमियों में बढ़ता जाता है। यह नैतिक पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो आध्यात्मिक पूर्णता को भी उपलब्ध कर लेता है। ग्यारहवें गुणस्थान के विपरीत स्वरूपवाले बारहवें गुणस्थान की यही विशेषता है कि विकास की भूमि में साधक के पतन की कोई सम्भावना नहीं रहती। सयोग केवली गुणस्थान
जैन दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार को 'योग' संज्ञा से विभूषित किया जाता है और इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोग केवली गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में आनेवाला साधक, साधक की श्रेणी में नहीं रह जाता, उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में कुछ कमी रहती है। अष्ट कर्मों में से चार घाती कर्म तो क्षय कर चुके होते हैं लेकिन चार अघाती कर्म- आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय आदि कर्मों के अस्तित्व के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती है। इसे सदेहमुक्ति भी कहते हैं। जैन परम्परा में इस अवस्था को अर्हत्, सर्वज्ञ, केवली आदि नामों से विभूषित किया गया है। अयोग केवली गुणस्थान
सयोग केवली गुणस्थान में स्थित आत्मा (साधक) आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त तो कर लेती है, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहता है। सयोग केवली जब अपने शरीर से मुक्ति पाने के लिए विशुद्ध ध्यान का आश्रय लेकर मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों को सर्वथा रोक देता है तब वह (साधक) आध्यात्मिक विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। आत्मा की इसी अवस्था का नाम अयोग केवली
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