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________________ आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ २४३ है। यदि नैतिक दृष्टि से कहा जाय तो इस अवस्था में प्राणी को शुभ और अशुभ या कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान नहीं होता है। फलत: मिथ्यादृष्टि के कारण राग-द्वेष से वशीभूत हो आत्मा आध्यात्मिक सुख से वंचित रहती है। वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की भाँति निरुद्देश्य इधर-उधर भटकती रहती है। उस पर वासनात्मक प्रवृत्तियाँ इस प्रकार हावी होती हैं कि वह सत्य दर्शन एवं नैतिक आचरण से वंचित रहती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आत्मा ऐकान्तिक धारणाओं, विपरीत धारणाओं, वैनयिकता, संशय और अज्ञान से युक्त रहती है। जिसके कारण उसको यथार्थ दृष्टिकोण उसी प्रकार अरुचिकर लगता है जिस प्रकार ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को भोजन।१ परन्तु एक सवाल स्वत: उठता है कि क्या यथार्थ या सत्य कोई वस्तु है जिसे प्राप्त किया जा सकता है? नहीं? वह वस्तु नहीं है बल्कि वह सदैव अपने यथार्थ रूप में ही रहती है। हम ऐकान्तिक दृष्टिकोण या पाक्षिक व्यामोह के कारण उसे देख नहीं पाते हैं। अत: जब व्यक्ति ऐकान्तिक दृष्टिकोण का त्याग कर देता है तो यथार्थ दृष्टिकोणवाला कहलाने लगता है। जैसा कि पंडित सुखलाल जी संघवी ने कहा है कि प्रथम गुणस्थान में रहनेवाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं, जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असत्-दृष्टि कहलाती हैं, तथापि वे सत्-दृष्टि के समीप ले जानेवाली होने के कारण उपादेय मानी गयी हैं। १२ अत: कहा जा सकता है कि इस गुणस्थान का मुख्य लक्षण मिथ्यादर्शन अथवा मिथ्या श्रद्धान् है। सास्वादन गुणस्थान यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का चित्रण करता है। सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन होने से ही इस गुणस्थान को सास्वादन या सासादन कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति को मोह का प्रभाव कम होने पर जब कुछ क्षणों के लिए सम्यक्त्व अर्थात् यथार्थता की अनुभूति होती है, परन्तु मोहोदय के कारण सम्यक्त्व से गिरकर पुन: आत्मा मिथ्यात्व में प्रविष्ट हो जाती है। ऐसी अवस्था में सम्यक्त्व का अति अल्पकालीन आस्वादन होता है, जिसके कारण इसे सास्वादन सम्यक्-दृष्टि के नाम से अभिहित किया जाता है। जिस प्रकार खाना खाने के बाद वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुन: अयथार्थता का ग्रहण होता है तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिए उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है। यही सास्वादन गुणस्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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