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________________ ध्यान २१३ संप्रज्ञात - साधक के चित्त में सुख की भावना का विक्षेपण न होना संप्रज्ञता है। ध्यान से साधक के शरीर में एक विचित्र शान्ति तथा समाधान का उदय होता है। जिसमें साधक को समता भाव की प्राप्ति होती है। जैसा कि दीघनिकाय में दृष्टांत उपस्थित करते हुए कहा भी गया है कि जिस प्रकार कमल समुदाय में कोई नीलकलम, रक्तकमल या श्वेतकमल जल में उत्पन्न होकर जल में ही बढ़ता है और जड़ से चोटी तक जल में ही व्याप्त रहता है, उसी प्रकार तृतीय ध्यान में भिक्षु का शरीर प्रीतिसुख में व्याप्त रहता है।२०२ प्रीति पुन: उत्पन्न न हो इसलिए तृतीय ध्यान पर भी योगी को वशिताओं द्वारा आधिपत्य स्थापित कर लेना चाहिए। एकाग्रता सहित (चतुर्थ ध्यान) जब साधक पाँच वशिताओं द्वारा तृतीय ध्यान में अभ्यस्त हो जाता है और वह उसके विषय में विचार करता है तो तृतीय ध्यान भी उसे दोषयुक्त दिखाई देता है। कारण कि इसका सुख स्थूल है और इसके अंग दुर्बल हैं। साधक को तृतीय ध्यान की अपेक्षा चतुर्थ ध्यान अधिक शान्त और प्रणीत लगता है। इस ध्यान में शारीरिक सुख या दुःख का सर्वथा त्याग, मानसिक सुख या दुःख का प्रहाण, राग-द्वेष से विरह, उपेक्षा द्वारा स्मृति परिशुद्धि-इन चार विशेषताओं का जन्म होता है, जो पूर्व के तीन ध्यानों के परिणाम रूप होता है। दीघनिकाय में कहा भी गया है-सौमनस्य एवं दौर्मनस्य के अस्त हो जाने से न दुःख न सुखवाला यह ध्यान स्मृति एवं उपेक्षा से शुद्ध होता है। योगी चतुर्थ ध्यान रूपी चित्त से शरीर को निर्मल बनाता है। उसके शरीर का कोई भी भाग ऐसा नहीं बचता जो शुद्ध एवं निर्मल न हो।२०३ जिस प्रकार उजले कपड़े से सिर तक ढ़ककर बैठनेवाले पुरुष के शरीर का कोई भी भाग उजले कपड़े से बे-ढ़का नहीं रहता, उसी प्रकार साधक के शरीर का कोई भी भाग शुद्ध-चित्त से अव्याप्त नहीं रहता। ध्यान की यही पराकाष्ठा मानी गयी है। इस प्रकार चतुर्थ ध्यान की विशेषता को समझकर साधक पुनः-पुन: उसी (पृथ्वी) निमित्त का आलम्बन कर ध्यान को सुदृढ़ बनाता है। इस ध्यान के दो अंग हैंउपेक्षा-वेदना तथा एकाग्रता।२०४ दुःख और सुख से रहित अतिसूक्ष्म एवं कठिनाई से समझी जानेवाली वेदना उपेक्षा-वेदना है, जो न तो कायिक सुख रूप होती है और न ही कायिक दुःखरूप, न चैतसिक सुखरूप होती है न चैतसिक दुःखरूप और न ही सुखदु:ख, सौमनस्य एवं दौर्मनस्य का अभावमात्र ही होती है, बल्कि यह एक ऐसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002120
Book TitleJain evam Bauddh Yog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudha Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size14 MB
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