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करुणा और अनुकम्पा
अचेतन-सचेतन में कोई भिन्नता है, तो वह मुख्यतः दो ही बातों में है-1. संवेदन करना और 2. जानना । संवेदन करने को 'दर्शन' व जानने को 'ज्ञान' कहा जाता है। ज्ञान और दर्शन गुण चेतन के मुख्य लक्षण हैं। अचेतन में ये गुरण नहीं होते हैं। ज्ञान भी दर्शन के बाद होता है । इसलिए ज्ञान से अधिक महत्त्व दर्शन का है। जिस प्राणी का जितना दर्शन-गुरण विकसित है उस प्रारणी की चेतना उतनी ही अधिक विकसित है। वस्तुतः संवेदन गुण ही चेतना का प्रतीक है । शरीर में भी जिस स्थल पर संवेदनशक्ति खो जाती है, उसे हम भूच्छित या अचेतन कहते हैं। प्राणी का जितना-जितना विकास होता जाता है, संवेदनशक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है । इस संवेदनशक्ति का अधिक विकास होने पर प्राणी अपने से भिन्न व्यक्तियों में होने वाली संवेदना या वेदना का भी स्वयं संवेदन करने लगता है। जिससे दूसरों को होने वाले दुःख से वह करुरिणत व अनुकंपित होने लगता है। उनकी वेदना को वह स्वयं संवेदन के रूप में अनुभव करता है और उस वेदना या दुःख को मिटाने का प्रयास करता है इसे ही दया कहा जाता है। पर-पीड़ा का संवेदन 'करुणा' या 'अनुकम्पा' है, पर-पीड़ा को दूर करने के लिए अपना योगदान देना 'दया है। 'दया' करुणा या अनुकम्पा का क्रियात्मक रूप है । पर-पीड़ा से करुणित व्यक्ति अपने दुःख से ऊपर उठ जाता है और अपनी सामर्थ्य का उपयोग दूसरों की सेवा में करता है। करुणा जितने ऊँचे स्तर की होगी, जितनी गहरी होगी, उतनी ही विभु होगी तथा चेतना उतनी ही ऊँचे स्तर की होगी, गहरी होगी व विभु होगी।
जो साधक पर-पीड़ा से संवेदनशील होते हैं, वे सहज ही अपनी सामर्थ्य व शक्ति का उपयोग प्राणी मात्र का दु:ख दूर करने में करते हैं । उनका यह योगदान जैनागम में अनन्त दान कहा गया है। ऐसे व्यक्ति में अनन्त ऐश्वर्य, अनंत सौन्दर्य और अनंत सामर्थ्य की
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