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भूमिका
[ xliii कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी यह निर्णय देश, काल, परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आंकना होगा । जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है --1. प्राणी का ऐन्द्रियक एवं आध्यात्मिक विकास और 2. उसकी सामाजिक उपयोगिता । सामान्यतया मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान है और मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान हो सकता है । सम्भवतः हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चींटियों के प्रति तो संवेदनशील बन सके, किन्तु मनुष्य के प्रति निर्मम ही बने रहे । आज हमें अपनी संवेदनशीलता को मोड़ना है और मानवता के प्रति हिंसा को सकारात्मक बनाना है।
सकारात्मक अहिंसा का महत्त्व
जैनधर्म में अहिंसा के सकारात्मक पक्ष का महत्त्व एवं स्थान प्राचीनकाल से ही रहा है । प्राचीनकाल से लेकर वर्तमान काल तक कुछेक अपवादों को छोड़कर सभी जैनाचार्यों ने सकारात्मक अहिंसा के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार किया है । वे सदैव ही गृहस्थ के लिए उसे आचरणीय मानते रहे हैं । आज चाहे भारत में जैनों की संख्या मात्र एक प्रतिशत हो, किन्तु उनके द्वारा संचालित चिकित्सालयों, पशु-पक्षी चिकित्सालयों, गोशालाओं, पांजरापोलों, विद्यालयों
और महाविद्यालयों की संख्या कहीं अधिक है। आज देश में इस प्रकार की लोकमंगलकारी प्रवृत्तियों में जुड़ी हुई जो संस्थाएँ अथवा ट्रस्ट हैं, उनमें लगभग 30% जैनों के द्वारा संचालित हैं । अकालादि के अवसरों पर प्राणियों के रक्षार्थ जैन समाज का जो योगदान होता है, उसे कोई भी नहीं भुला पाता है। जब भी मानव-समाज ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के भी जीवनरक्षण का प्रश्न आया है, जन समाज ने सदैव ही उसमें आगे बढ़कर हिस्सा लिया है । जैन समाज में आज भी अनेक ऐसे मूक कार्यकर्ता हैं जो तन-मन-धन से लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों में अपना योगदान देते हैं । इसके पीछे सदैव ही जैन
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