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(द) बौद्ध-वचन
(1) महत्स्वपि स्वदुःखेषु व्यक्तधैर्याः कृपात्मकाः ।
मृदुनाप्यन्यदुःखेन, कम्पन्ते यत्तदद्भुतम् ।। ~~-जातकमाला कृपालु (करुणाशील) मनुष्य अपने महान् दुःखों (दु:खद स्थितियों) में भी धैर्यशाली बने रहते हैं तथा दूसरों के कोमल (हलके से) दुःख से भी कम्पित हो जाते हैं, यह अद्भुत बात है। (2) असारस्य शरीरस्य, सारो ह्यष मतः सताम् ।
यत्परेषां हितार्थेषु, साधनीक्रियते बुधैः ।। -जातकमाला असार शरीर का साधु पुरुषों ने यह सार माना है कि समझदारों को इसे दूसरों का हित साधने में साधन बना लेना चाहिए । (3) दयालुर्नोद्वगं जनयति परेषाम्, उपशमात् । दयावान् विश्वास्यो भवति जगतां बान्धव इव ।।
-जातकमाला दयालु मनुष्य दूसरों में उद्वेग पैदा नहीं करता। शान्त रहने के कारण दयावान् पुरुष संसार में बन्धजन की भांति विश्वसनीय होता
(4) आर्ते प्रवृत्तिः साधूनां, कृपया न तु लिप्सया ।
तामवैतु परो मा वा, तत्र कोपस्य को विधिः ।। कृतश्चेद् धर्म इत्येव, कस्तत्रानुशयः पुनः ।
अथ प्रत्युपकारार्थम् ऋणदानं न तत्कृतम् ।। ---जातकमाला दुःखी का दुःख निवारण करने के प्रति सज्जनों की प्रवृत्ति करुणापूर्वक होती है, किसी लिप्सा के कारण नहीं। इसे दूसरा समझे या न समझे, किन्तु इसमें क्रोध करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि दुखियों का दुःखहरण धर्म (कर्तव्य) समझकर किया गया है तो इसमें फिर पश्चात्ताप की क्या बात है ? यदि प्रत्युपकार के लिए ऐसा किया गया है तो यह तो ऋणदान हुआ, धर्मपालन नहीं।
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