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________________ 336 ] सकारात्मक अहिंसा प्यासे, भूखे अथवा दुःखी को देखकर जो जीव मन में दुःखी (करुणित) होकर उन पर कृपा करता है उसका यह कार्य अनुकंपा है ऐसा अनुकंपायुक्तभाव व प्रशस्त राग जिसके होता है उस जीव का चित्त कलुषता (कषाय) रहित होता है और उस जीव के पुण्य का मास्रव होता है। (36) करुणाए कारणं कम्मं करुणे त्ति ण वृत्तं ? करुणाए जीवसहावस्स कम्मणिदत्तविरोहादो। अकरुणाए कारणं कम्मं वत्तव्वं ? ण एस दोसो संजमघादिकम्माणं फलभावेण तिस्से अब्भवगमादो। --षट्खंडागम, धवलटीका, 5.5.97 पुस्तक 13, पृष्ठ 361-362 - जिज्ञासा-करुणा का कारणभूत कर्म करुणा कर्म है, यह क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि करुणा जीव का स्वभाव है। अतः इसे कर्म जनित अर्थात् कर्म के उदय से मानने में विरोध प्राता है। जिज्ञासा-तब फिर अकरुणा का अर्थात् करुणाहीनता का कारण कर्म कहना चाहिए ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है क्योंकि अकरुणा को अर्थात् करुणाहीनता को संयमघाती कर्म (प्रत्याख्यानावरणीय कर्म के फल रूप में स्वीकार किया गया है। (37) जं इच्छसि अप्पणतो जं च न इच्छसि अप्पणतो। तं इच्छ परस्स वि एत्तियणं जिणसासयं ।। -बृहत्कल्पभाष्य, 4584 जो अपने लिए चाहते हो वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए जो अपने लिए नहीं चाहते हो वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए । इतना तीर्थकारों का उपदेश है । (38) गिलाणं वेयावच्चं करेमाणे समणे निग्गंथे महाणिज्जरे महापज्जवसाणे भवति। . - व्यवहारसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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