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परिशिष्ट
( 29 ) सोउण वा गिलाण, पंथे गामे य भिक्खवेलाए ।
जति तुरियं णागच्छति, लग्गति गुरुए चउम्मासे ( सवित्थारं ) - निशीथभाष्य 2970, बृहत् कल्पभाष्य 3769 विहार करते हुए, गांव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते समय यदि सुन पाए कि कोई साधु बीमार है तो जो (साधु) शीघ्र ही वहाँ नहीं पहुँचता है, उसे गुरुचातुर्मासिक प्रायश्चित्त (दंड) आता है ।
( 30 ) जह भमर - महुयर-गणा णिवतंति कुसुमितम्मि वणसंडे । तह होति णिवतियव्वं गेलण्णे कतितवजढेण || - निशीथभाष्य, 2971 जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देखकर भौंरे उस पर मंडराने लगते हैं, उसी प्रकार किसी साथी को दुःखी देखकर उसकी सेवा के लिए अन्य साथियों को सहज भाव से उमड़ना चाहिए ।
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( 31 ) भगवती अहिंसा भीयाणं विव सरणं ।
- प्रश्नव्याकरण, 2.1.60 (32) लज्जादया संजमबंभचेरं कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । - दश वै. 9.13 लज्जा, दया, संयम और ब्रह्मचर्य इनसे आत्मा विशुद्ध होती है । ( 33 ) दुक्खं खु निरणुकंपा । - निशीथ भाष्य, गाथा 5633 दुःख अनुकंपा रहित होने से होता है ।
( 34 ) अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकंपए श्रणुब्भडे विगयसोगे चरितमो णिज्जं कम्मं खवेइ ।
- उत्तराध्ययन, 29.29 विरक्ति एवं अनुकंपा से जीव निराकुलता युक्त एवं शोक रहित होकर चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय कर वीतराग होता है ।
( 35 ) तिसिदं व भुक्खिदं वा दुहिदं दट्ठूण जो दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥ 137 ॥ रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदो य परिणामो । चित्तम्हि णत्थि कलुषं पुण्णं जीवस्स प्रसवदि ॥ 135 ।। - पंचास्तिकाय - कुंदकु दाचार्य
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