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सकारात्मक अहिंसा
देते हैं। अतः यह मानना भ्रान्त है कि लोक-कल्याण की सभी प्रवत्तियों के पीछे राग-भाव होता है । व्यावहारिक जीवन में भी ऐसे अनेक अवसर होते हैं जब दूसरे प्राणी की पीड़ा से हमारी अन्तरात्मा करुणार्द्र हो जाती है, और हम उसकी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न करते हैं। वहां रागात्मकता नहीं होती है । वहाँ केवल विवेक-बुद्धि और परपीड़ा के स्व-संवेदन से उत्पन्न कर्तव्यता का भाव ही होता है, जो उस सकारात्मक अहिंसा का प्रेरक होता है। दूसरों के प्रति रागात्मकता में और कर्तव्य-बोध में बड़ा अन्तर होता है। राग के साथ द्वष अवश्य रहता है । जबकि कर्तव्य-बोध में उसका अभाव होता है। किसी राहगीर की पीड़ा से जो हृदय द्रवित होता है, वह राग के कारण नहीं, अपितु परपीड़ा के स्व-संवेदन या आत्मतुल्यता के भाव के कारण होता है। पालतू कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में और किसी सड़क पर पड़े कुत्ते की पीड़ा को दूर करने में अन्तर है। पहले में रागभाव है, दूसरे में मात्र परपीड़ा का आत्मसंवेदन । जब दूसरों के रक्षण, पोषण, सेवा और परोपकार के कार्य मात्र कर्त्तव्य बुद्धि अथवा परपीड़ा के आत्मसंवेदन से होते हैं, तो उनमें रागात्मकता का तत्व नहीं होता और यह सुस्पष्ट है कि रागात्मकता के अभाव में चाहे कोई क्रिया कर्मास्रव का कारण भी बने तो भी वह बन्धन कारक नहीं हो सकती, क्योंकि उत्तराध्ययन (32/7) आदि जैन ग्रन्थों में बन्धन का मुख्य कारण राग और द्वष की वृत्तियाँ ही मानी गयी हैं। दूसरों के रक्षण और सम्पोषण के प्रयत्नों में चाहे किसी सीमा तक हिंसा की बाह्य प्रवृत्ति भी हो सकती है, किन्तु वह यथार्थ रूप में बन्धन का हेतु नहीं है । यदि हम ऐसी प्रवृत्तियों को बन्धन रूप मानेंगे तो फिर तीर्थंकर की लोक-कल्याणकारी प्रवृत्तियों अर्थात् लोकमंगल के लिए विहार और उपदेश के कार्य को भी बन्धन का हेतु मानना होगा, किन्तु आगम के अनुसार उपदेश संसार के जीवों के रक्षण के लिए होता है, वह बन्धन का निमित्त नहीं होता है।
निष्कामकर्म बन्धक नहीं
इस समग्र चर्चा से यह. फलित होता है कि पुण्य कर्म यदि मात्र
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