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________________ भूमिका xxxi पाप दोनों से ऊपर उठने की बात कही है (समयसार, 146) । यह सत्य है कि पुण्य और पाप की अधिकांश परिभाषाएँ इस अवधारणा पर खड़ी हैं कि दया और जीवन-रक्षण के जो कार्य हैं, वे पुण्य हैं और जो दूसरों के अहित और दुःख के कार्य हैं, वे पाप हैं । सामान्य रूप से यह कहा जाता है कि "परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ।" गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है "परहित सरिस धर्म नहिं भाई। परपीडा सम नहिं अधमाई।" यह सत्य है कि परोपकार पुण्य है और तत्त्वार्थसूत्र (6/2-4) में उमास्वाति ने पुण्य और पाप दोनों को को आस्रव का एक भेद भी माना है और आस्रव को बन्ध का हेतु मानने के कारण बाद में यह अवधारणा दृढीभूत हो गयी कि पुण्य बन्धन का ही हेतु है। किन्तु यह दृष्टिकोण जैन सिद्धान्त की दृष्टि से भी भ्रामक ही है । प्रथम तो सभी प्रास्रव वस्तुतः बन्धन के कारण नहीं होते हैं दूसरे यह मानना भी भ्रान्ति है कि पुण्य मात्र आस्रव है। प्राचीन आगमों में वह स्वतन्त्र तत्त्व है। वह आस्रव और बन्ध है तो साथ ही संवर और निर्जरा भी है । जैन आचार्यों ने शुभयोग को संवर माना है। वह निर्जरा भी है और निर्जरा का हेतु भी है। पुण्य तो उस साबुन के समान है जो पाप रूपी मल को निकालने के साथ स्वतः बिना प्रयास के निर्जरित हो जाता है । ज्ञातव्य है कि पाप के बन्ध की निर्जरा करना होती है। पुण्य तो स्वतः निर्जरित हो जाता है। यह सत्य है कि यदि सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण के पीछे रागात्मकता का भाव है तो वे बन्धन के कारण हैं, किन्तु सेवा, परोपकार और जीवों के रक्षण की सभी प्रवृत्तियाँ रागात्मकता से हो प्रेरित होकर नहीं होती हैं, अपितु वे परपीड़ा के स्वसंवेदन के कारण भी होती हैं । जब दूसरों के प्रति आत्मवत्. दृष्टि का विकास हो जाता है तो उनकी पीड़ा हमारी पीड़ा बन जाती है और ऐसी स्थिति में जिस प्रकार अपनी पीड़ा को दूर करने के प्रयत्न होते हैं, उसी प्रकार दूसरों की पीड़ा को दूर करने के भी प्रयत्न होते हैं। ज्ञानात्मक दृष्टि से आत्मतुल्यता का विचार और भावात्मक दृष्टि से परपीड़ा का स्व-संवेदन स्वाभाविक रूप से लोक-कल्याण की प्रवृत्तियों को अर्थात् रक्षण, सेवा, दान, परोपकार आदि को जन्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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