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सकारात्मक अहिंसा
का हेतु न बने । यहीं से सकारात्मक अहिंसा को एक आधार मिलता
सकारात्मक अहिंसा : विषमिश्रित दूध नहीं
सकारात्मक अहिंसा में निश्चित रूप से अंशतः हिंसा का कोई-नकोई रूप समाविष्ट होता है, किन्तु उसे विष-मिश्रित दूध कहकर त्याज्य नहीं कहा जा सकता । उसमें चाहे हिंसा रूपी विष के कुछ कण उपस्थित हों, कन्तु ये विष-कण विषौषधि के समान मारक नहीं, तारक होते हैं । जिस प्रकार विष की मारक शक्ति को समाप्त करके उसे औषधि रूपी अमृत में बदल दिया जाता है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा में जो हिंसा या रागात्मकता के रूप परिलक्षित होते हैं, उन्हें विवेकपूर्ण कर्त्तव्य भाव के द्वारा बन्धन के स्थान पर मुक्ति के साधन के रूप में बदला जा सकता है । जिस प्रकार विष से निर्मित औषधि अस्वास्थ्यकर न होकर आरोग्यप्रद ही होती है, उसी प्रकार सकारात्मक अहिंसा भी सामाजिक स्वास्थ्य के लिए प्रारोग्यकर ही होती है। जब हम अपने अस्तित्व के लिए अपने जीवन के रक्षण के लिए प्रवृत्ति और तज्जन्य प्रांशिक हिंसा को स्वीकार कर लेते हैं तो फिर हमारे इस तर्क का कोई आधार नहीं रह जाता कि हम सकारात्मक अहिंसा को इसलिए अस्वीकार करते हैं कि उसमें हिंसा का तत्त्व होता है और वह विष-मिश्रित दूध है। अपने अस्तित्व के लिए की गई हिंसा क्षम्य है तो दूसरों के अस्तित्व या रक्षण हेतु की गई हिंसा क्षम्य क्यों नहीं होगी?
पुनः दूसरों के अस्तित्व के लिए की जाने वाली प्रवृत्तियों में हमें रागात्मकता लगे तो क्या अपने हेतु की गयी वृत्ति में रागात्मकता नहीं होगी। जब प्रवृत्ति या क्रिया से पूर्ण निवृत्ति सम्भव ही नहीं है तो ऐसी स्थिति में क्रिया को वह रूप देना होगा जो बन्धन और हिंसा के स्थान पर विमुक्ति और अहिंसा से जुड़े। मात्र कर्तव्य बुद्धि से की गई परोपकार की प्रवृत्ति ही ऐसी है जो हमारी प्रवृत्ति को बन्धक से अबन्धक बना सकती है।
यही कारण था कि जैन-परम्परा में ईर्यापथिक क्रिया और ईर्या
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