SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भूमिका [ xxvii बस इस तर्क शैली ने अहिंसा की निषेधमूलक व्याख्या को बल दिया । प्रथम प्रश्न तो यह है कि क्या जैनधर्म एकान्त रूप से निवृत्त्या - त्मक ही है ? दूसरे क्या समाधिमरण के अन्तिम क्षणों को छोड़कर जीवन में प्रवृत्ति का पूर्ण निषेध सम्भव है ? क्या महावीर का उपदेश एकान्त रूप से निवृत्ति या श्रमण जीवन के लिए ही है ? क्या जीवन के सभी रूप समान मूल्य एवं महत्त्व के हैं ? जैन दर्शन की अनेकान्तिक दृष्टि आयें इन प्रश्नों पर थोड़ी गम्भीरता से चर्चा करें । जैनधर्म और दर्शन मूलतः अनेकान्त दृष्टि पर अधिष्ठित है और अनेकान्त दृष्टि कभी भी एकपक्षीय नहीं होती । दूसरे जब तक जीवन है, तब तक पूर्ण रूप से निवृत्ति सम्भव नहीं है। प्रवृत्ति प्राणीय जीवन या हमारे जातीय अस्तित्व का लक्षण है । गीता ( 3 / 5 ) में भी कहा गया है कि जीवन में कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता जिसमें प्राणी कर्म या क्रिया से पूर्णतः निवृत्त होते हैं । प्रवृत्ति प्राणी - जीवन की अनिवार्यता है । जब तक हमारा सांसारिक अस्तित्व रहता है, कहीं न कहीं प्रवृत्ति होती ही रहती है; पूर्ण निवृत्ति का आदर्श चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो ? वह एक आदर्श ही है, यथार्थ नहीं । जैनदर्शन के अनुसार निर्वाण प्राप्ति के कुछ क्षण पूर्व के सांसारिक अस्तित्व को छोड़कर पूर्ण निवृत्ति का आदर्श कभी भी यथार्थ नहीं बनता है । चाहे हम मुनि जीवन ही क्यों नहीं जीयें - पूर्ण अहिंसा का पालन तो वहाँ भी सम्भव नहीं है । शारीरिक गतिविधियों, श्वसन, आहार-विहार और शारीरिक मलों के विसर्जन आदि सभी में कहीं-न-कहीं हिंसा होती तो अवश्य है । यथार्थ जीवन में प्रवृत्ति से या क्रिया से पूर्ण रूप से निवृत्त हो पाना सम्भव ही नहीं है और यदि यह सम्भव नहीं है, तो ऐसी स्थिति में हमें प्रवृत्ति के उन रूपों को ही चुनना होगा, जिनमें हिंसा अल्पतम हो । जब प्रवृत्ति या हिंसा जीवन की एक अपरिहायता है, तो हमें यह विचारना होगा कि हमारी प्रवृत्ति की दशा ऐसी हो जिसमें हिंसा कम-से-कम हो । वह हिंसा कर्म-प्रास्रव या कर्मबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy