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भूमिका
प्रो. सागरमल जैन
हिंसा की अवधारणा बीज रूप में सभी धर्मों में पायी जाती है । यहाँ तक कि यज्ञ-याग एवं पशुबलि के समर्थक वैदिक और यहूदी धर्म-ग्रन्थों में भी अहिंसा के स्वर मुखरित हुए हैं । चाहे ऋग्वेद में 'पुमान् पुमांसं परिपातु विश्वतः' (ऋग्वेद, 6.75.14) के रूप में एकदूसरे के संरक्षण की बात कही गयी हो अथवा यजुर्वेद में इससे भी एक कदम आगे बढ़कर 'मित्रस्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समीक्षे' ( यजुर्वेद, 36.19 ) के रूप में सभी प्राणियों के प्रति मित्रभाव की कामना की गई हो, फिर भी वैदिक धर्म में पशुबलि न केवल प्रचलित ही रही, अपितु 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' कहकर उसका समर्थन भी किया गया । इसी प्रकार यहूदी धर्मग्रन्थ Old Testament में भी 10 आज्ञाओं के रूप में Thou shall not Kill 'तुम किसी की हत्या मत करो' का आदेश है । फिर भी उनके इस आदेश का अर्थ वही नहीं माना जा सकता है, जो जैन परम्परा में 'सव्वे सत्ता ण हंतव्वा' का है । यहाँ हमें स्पष्ट रूप से यह ध्यान रखना होगा कि अहिंसक चेतना का विकास या अहिंसा शब्द के अर्थ का विस्तार एक क्रम में है । शाब्दिक दृष्टि से “ Thou shall not Kill" और "सब्वे सत्ता ण हंतव्वा " - दोनों प्रदेशों का अर्थ यही है कि 'तुम हिंसा मत करो ।' किन्तु इन आदेशों की जो व्याख्या यहूदी धर्म और जैन धर्म में की गई, वह भिन्न ही रही है । एक यहूदी के लिए इस आदेश का अर्थ स्वजातीय या स्वधर्मी बन्धु की हिंसा नहीं करने तक सीमित है । जबकि एक जैन के लिए उस आदेश का अर्थ न केवल किसी प्राणी की, अपितु पृथ्वी, जल, वायु आदि की भी हिंसा न करने तक व्यापक है । इस प्रकार जैन और यहूदी परम्परात्रों में इन आदेशों का जो अर्थ-विकास हुआ है वह भिन्न-भिन्न है । यहाँ हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अहिंसा के अर्थ विकास की यह यात्रा किसी एक कालक्रम में न होकर मानवजाति के विभिन्न वर्गों में सामाजिक
हुआ
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