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भारतीय साहित्य में दान की महिमा
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पाप करने लगता है, पाप के प्रभाव से वह नरकगामी बन जाता है, और बार-बार दरिद्र तथा पापी होता रहता है ।" दान न देने के कितने भयंकर परिणाम भोगने पड़ते हैं । दान के अभाव में मनुष्य का कंसा एवं कितना पतन हो जाता है । फिर उससे अगले ही श्लोक में, दान के सद्भाव का वर्णन किया गया है " सत्पात्र को दान देने से मनुष्य धन-सम्पन्न हो जाता है, धनवान् होकर वह पुण्य का उपार्जन करता है, फिर पुण्य के प्रभाव से स्वर्गगामी बन जाता है, और फिर बार-बार धनवान् और दाता बनता रहता है ।" इसमें बताया गया है, कि दान का परिणाम कितना सुखद और कितना सुन्दर होता है दान न करने से क्या हानि हो सकती है और दान करने से क्या लाभ हो सकता है ? गुण-दोषों का कितना सुन्दर वर्णन किया गया है । अन्य पुराणों में भी दान के सम्बन्ध में यथाप्रसंग काफी लिखा गया है । कहीं पर उपदेश के द्वारा, तो कहीं पर कथा के द्वारा दान की गरिमा तथा दान की महिमा का विशद निरूपण किया गया है । सत्पात्र को देने से पुण्य और पात्र को देने से पाप होता है, इसका भी उल्लेख किया गया है । दाता की प्रशंसा और प्रदाता की निन्दा भी की है ।
संस्कृत के नीति-काव्यों में दान की गरिमा
जैन परम्परा के कथात्मक नीति ग्रन्थों में दान का बहुत विस्तार से वर्णन उपलब्ध होता है । महाकवि धनपाल द्वारा रचित 'तिलकमञ्जरी' में जीवन से सम्बद्ध प्रायः सभी विषयों का वर्णन सुन्दर और मधुर शैली में तथा प्राञ्जल भाषा में हुआ है । उसमें दान की महिमा का वर्णन अनेक स्थलों पर किया गया है। दान का फल क्या है ? दान कैसे देना चाहिए ? दान किसको देना चाहिए ? इन विषयों पर विस्तार से लिखा गया है । प्राचार्य सोमदेवसूंरि कृत 'यशस्तिलकचम्पू' में धार्मिक, सांस्कृतिक तथा अध्यात्म भावों का बड़ा ही सुन्दर विश्लेषण हुआ है । संस्कृत साहित्य में यह ग्रन्थ अद्वितीय एवं अनुपम माना जाता है । मनुष्य जीवन से सम्बद्ध बहुविध सामग्री उसमें उपलब्ध होती है । साधु जीवन और गृहस्थ जीवन के सुन्दर सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है । भाव, भाषा और शैली सुन्दर
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