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________________ प्रवचन दान का महत्त्व स्व. श्राचार्य श्री हस्तीमलजी म. सा. स्वाध्याय के द्वारा स्व-पर के भेद का ज्ञान प्राप्त होता है । जिस प्रबुद्ध आत्मा को स्व तथा पर के भेद का ज्ञान प्राप्त हो गया, उसकी पौद्गलिक माया से ममता स्वतः ही कम हो जायेगी । भौतिक सामग्री पर से ममता घटेगी, तभी व्यक्ति के अन्तर्मन में दान देने की प्रवृत्ति बलवती होगी । ममता घटेगी तभी सेवा की वृत्ति उत्पन्न होगी, क्योंकि ये सारी चीजें ममता के घटने से सम्बंधित हैं । आलोचना का व्यक्ति के स्वयं के जीवन-निर्माण से सम्बन्ध है । दान का सम्बन्ध दूसरे लोगों के साथ, स्वधर्मी बन्धुनों के साथ आता है और इसमें स्व-कल्याण के साथ पर-कल्याण का दृष्टिकोण अधिक होता है । इसका तात्पर्यार्थ यह नहीं कि दान देते समय दानदाता द्वारा स्व-कल्याण को पूर्णतः ठुकरा दिया जाता है । ऐसा नहीं होता, क्योंकि पर-कल्याण के साथ स्व-कल्याण का श्रविनाभाव सम्बन्ध है । पर - कल्यारण की भावना जितनी उत्कट होगी, उतना ही अधिक स्व-कल्याण स्वतः हो जायगा । जो स्वकल्याण से विपरीत होगा वह कार्य व्यावहारिक एवं धार्मिक, किसी पक्ष में स्थान पाने योग्य नहीं है । Jain Education International दान की विशेषता' दान की यह विशेषता है कि वह स्व और पर दोनों का कल्याण करता है । दान देने की प्रवृत्ति तभी जाग्रत होगी जबकि मानव के मन में अपने स्वत्व की, अपने अधिकार की वस्तु पर से ममता हटेगी । ममत्व हटने पर जब उसके अन्तर में सामने वाले के प्रति प्रमोद बढ़ेगा, प्रीति बढ़ेगी और उसे विश्वास होगा कि इस कार्य में मेरी सम्पदा का उपयोग करना लाभकारी है, कल्याणकारी है, तभी वह अपनी सम्पदा का दान करेगा । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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