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सकारात्मक अहिंसा धर्म है
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मार्ग मानते हैं । वे मिथ्यात्वी हैं तथा धर्म के, सत्य के व मानवता के विरोधी हैं ।
अब विचार यह करना है कि शुभभाव से कर्म-क्षय होने की प्रक्रिया क्या है ? इस पर विचारने के लिए हमें प्राचीन कर्मग्रंथों व उनकी टीकाओं पर ध्यान देना होगा । प्राचीन कर्मग्रंथों व उनकी टीकाओं में शुभभाव व शुभयोग के स्थान पर 'विशुद्धि' शब्द का प्रयोग हुआ है । जिससे आत्मा विशुद्ध हो वही 'विशुद्धि' है । श्रात्मा की शुद्धि होती है कषायों में कमी होने से । अर्थात् वर्तमान में जितने अंशों में कषाय का उदय है उन कषायांशों में कमी होना विशुद्धि है । यही आत्मा का पवित्र होना भी है । इसलिए विशुद्धि को धर्म व पुण्य भी कहा गया है । इसके विपरीत वर्तमान में जितने कषायांश हैं उनमें वृद्धि होने को संक्लेश कहा गया है । संक्लेश से आत्मा का अध: पतन होता है जो पाप का द्योतक है । अतः जैन ग्रन्थों व टीकाओं में संक्लेश कषाय - वृद्धि) को पाप कहा है ।
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कषाय- युक्त प्रवृत्ति ही मोह है । अतः कषाय की कमी या वृद्धि होना मोह (मोहनीय कर्म) की कमी या वृद्धि होना है । कषाय या मोह की कमी होना ही भावों की विशुद्धि है । यही भावों की विशुद्धि शुभभाव है । शुभभाव का क्रियात्मक रूप शुभ प्रवृत्ति या शुभयोग या सद्प्रवृत्ति है । यह सब आत्मशुद्धि का प्रतीक होने से धर्म रूप है । इस रूप में शुभभाव, शुभयोग, धर्म और पुण्य पर्यायवाची हैं, विरोधी नहीं हैं । श्राचार्य प्रकलंक तथा पूज्यपाद ने तत्त्वार्थसूत्र श्र. 1 सूत्र 10 की टीका में कहा है कि विशुद्धि से प्रीति का उदय, उपेक्षाभाव की जागृति तथा अज्ञान का नाश होता है। ये तीनों ही मुक्ति प्राप्ति में सहायक हैं अर्थात् शुभभाव रूप सद्प्रवृत्तियां मुक्ति प्राप्ति में हेतु हैं। दया, दान, करुणा, वात्सल्य व मैत्री रूप भावों की विशुद्धि के प्रभाव से कर्मक्षय कैसे होते हैं यहां इसी पर विचार किया जा रहा है ।
कर्म - सिद्धान्त का यह नियम है कि कषाय में कमी होने से भावों में विशुद्धि आती है । आयु-कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों
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