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सकारात्मक अहिंसा
नहीं है कारण कि राग का उदय मोहनीय कर्म से होता है और मोहनीयकर्म व इसकी किसी भी प्रकृति को कर्मग्रन्थ व आगम में कहीं पर भी शुभ नहीं कहा गया है अतः 'राग शुभ या प्रशस्त भी होता है' यह मान्यता कर्म सिद्धान्त व जैनागम से मेल नहीं खाती है । वीतराग देव, गुरु, धर्म, व गुणीजनों के प्रति जो अनुराग होता है वह राग नहीं प्रमोद है, प्रमोद संवर है । गुरणीजनों के स्मरण व सान्निध्य से जो प्रसन्नता होती है वह भोग नहीं स्वभाव है । राग व भोग विकार हैं और प्रेम, प्रमोद व प्रसन्नता का भाव सहज स्वभाव है । प्रेम, प्रमोदभाव, प्रसन्नता व अनुराग को राग मानना भूल है । राग त्याज्य होता है, अनुराग नहीं । राग में आकर्षण और भोग होता है, अनुराग में प्रमोद व प्रसन्नता होती है ।
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मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ (तटस्थता ) ये चारों ही भावनाएँ या भाव 'शुभभाव' हैं । शुभभाव होने से स्वभाव हैं, विभाव या दोष नहीं । स्वभाव गुणरूप होता है, दोषरूप नहीं और विभाव दोष रूप होता है, गुणरूप नहीं । मैत्री, प्रमोद करुणा आदि भाव गुण हैं, दोष नहीं । दोष नहीं होने से ये विकार या विभाव रूप नहीं हैं । विकार या दोष कभी शुभ नहीं हो सकता । इसी प्रकार शुभ कभी दोषरूप नहीं हो सकता । अतः शुभत्व 'गुण' का द्योतक है, दोष का नहीं । दोष से ही कर्मबंध होते हैं, गुरण से नहीं । अतः शुभभाव रूप मैत्री, प्रमोद, करुणा, अनुकंपा, वात्सल्य आदि भावों से या गुणों से कर्म-बंध व संसार-भ्रमरण मानना भूल है । इस भूल के रहते मानवता का जागरण ही संभव नहीं है ।
जहाँ मानवता का ही प्रभाव है वहाँ संयम, तप, संवरनिर्जरा रूप धर्म व मोक्ष कदापि संभव नहीं है । वहाँ तो पशुता व दानवता है जिसका मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । अतः जो मैत्री, प्रमोद, करुणा, वात्सल्य सेवा श्रादि शुभ भावों व सद्गुणों को कर्मबंध व संसार भ्रमण का कारण मानते हैं वे गुरण को दोष, स्वभाव को विभाव, निर्जरा या मोक्ष के मार्ग को संसार का
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