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________________ 78 ] सकारात्मक अहिंसा अन्य कोई समाधान नहीं है अत: 'शुभभाव से कर्मबन्ध होता है यह मान्यता प्रागम व युक्ति से विरुद्ध है। यदि आंशिक शुद्धता को भी शुद्धभाव माना जाय तो सभी प्राणियों के सदैव शुद्धभाव मानना होगा। कारण कि कोई भी प्राणी पूर्णरूप से अशुद्ध हो ही नहीं सकता । कोई भी प्राणी यदि पूर्ण प्रशुद्ध हो जाय तो उसका चैतन्य स्वभाव नष्ट हो जायगा और वह जड़ हो जायगा । जैसा कि 'कषाय पाहुड' पुस्तक, । पृष्ठ 55 में कहा है--"ण च कम्मेहि णाणस्स दंसरणस्स वा गिम्मूलविणासो कीरइ, जाव दव्वभाविगुणाभावे जीवाभावप्पसंगादो ।" अर्थात् यदि कहा जाय कि कर्म ज्ञान और दर्शन का निर्मूल विनाश कर देते हैं, तो यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर यावत् जीव-द्रव्य के प्रभाव का प्रसंग प्राप्त होगा, सो उपयुक्त नहीं है । तात्पर्य यह है कि कोई भी प्राणी कभी भी पूर्ण अशुद्ध हो ही नहीं सकता, प्रांशिक अशुद्ध ही होता है । यह आंशिक अशुद्धि प्रथम गुरणस्थान से दसवें गुणस्थान तक रहती है और यह नियम है कि अशुद्धि या अशुद्ध भाव से कर्मक्षय कदापि सम्भव नहीं है। इससे यह मानना पड़ेगा कि वीतराग के अतिरिक्त अन्य कोई कर्मक्षय कर ही नहीं सकता, जो मूल भूल है। अतः छद्मस्थ के कर्मक्षय का उपाय शुभभाव ही हो सकता है । शुभभाव से ही कर्मक्षय होकर सम्यक्त्व की उपलब्धि होती है। औपशमिक और क्षायिक भावों की उत्पत्ति में शुभभाव ही सहयोगी होते हैं, संक्लिष्ट भावों की विद्यमानता में औपशमिक और क्षायिक भावों की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है। 'शुभभाव' कषाय के उदय से नहीं, कषाय की कमी या मंदता से होते हैं, कारण कि कषाय का उदय, बन्ध, सत्ता सब अशुभ या पाप हैं। कषाय के उदय रूप अशुभभाव को शुभभाव मानना पाप को पुण्य मानना है। पाप को पुण्य समझना तात्त्विक भ्रान्ति व मिथ्यात्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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