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सकारात्मक अहिंसा धर्म है
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यहां प्रथम यह विचार करना है कि शुभभाव की उत्पत्ति का कारण कषाय का उदय अर्थात् श्रदयिकभाव है या नहीं इस सम्बन्ध में निम्नांकित तथ्य चिन्तनीय है
कषाय अशुभभाव हैं । अशुभ भावों के उदय से शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना मूलतः ही भूल है । यह भूल ऐसी ही है जैसे कोई कटु नीम का बीज (निम्बोली ) बोये और उसके फल के रूप में मधुर ग्रामों का उपलब्ध होना मानें । नियम यह है कि जैसा बीज होता है वैसा ही फल आता है, अतः कषाय रूप अशुभ परिणामों के उदय के फलस्वरूप शुभ परिणामों की उत्पत्ति मानना भूल है ।
यदि शुभभावों की उत्पत्ति का कारण कषाय के उदय को माना जाय तो अशुभ भावों की उत्पत्ति का कारण किसे माना जाय ? फिर तो अशुभभावों की उत्पत्ति का कारण शुभभावों को मानना होगा, जो युक्तियुक्त नहीं है । यदि शुभभाव और अशुभभाव इन दोनों भावों की उत्पत्ति का कारण कषाय के उदय को माना जाय तो एक ही कारण से दो विरोधी कार्यों की उत्पत्ति या दो विरोधी फलों की प्राप्ति माननी पड़ेगी जो उचित नहीं है तथा युक्तियुक्त भी नहीं है ।
यदि केवल शुद्धभाव को ही कर्मक्षय का कारण माना जाय और शुभभावों से कर्मक्षय न माना जाय तो वीतराग के प्रतिरिक्त अन्य कोई कर्मक्षय कर नहीं सकता । कारण कि वीतराग को छोड़कर अन्य किसी के शुद्धभाव सम्भव ही नहीं है क्योंकि वीतराग के अतिरिक्त शेष सब प्राणियों के नियम से कषाय का उदय रहता ही है। जहां तक कषाय का उदय है वहां तक शुद्धभाव नहीं हो सकते और शुद्धभाव के अभाव में कर्मों का क्षय नहीं हो सकता । इस प्रकार दसवें गुणस्थान तक कर्मक्षय का कोई उपाय ही शेष न रहेगा । कर्मक्षय के अभाव में तप, संयम, निर्जरा के प्रभाव का प्रसंग उत्पन्न हो जायेगा जिससे साधना के मार्ग का ही लोप हो जायगा जो श्रागमविरुद्ध है । इस आपत्ति का निवारण शुभभाव को कर्मक्षय का कारण मानने से ही सम्भव है । इसके अतिरिक्त
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