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________________ ( ७३ ) तो उनका उल्लेख हरिभद्र के ग्रंथों में कहीं न कहीं अवश्य मिलता । हरिभद्र द्वारा उल्लिखित विद्वानों की दीर्घ नामावली, जो हमने इस लेख में ऊपर लिखी है उसके अवलोकन से ज्ञात होता है कि, उन्होंने अपने पूर्व में जितने प्रसिद्ध मत और संप्रदाय प्रचलित थे उनमें होने वाले सभी बड़े-बड़े तत्त्वज्ञों के विचारों पर कुछ न कुछ अपना अभिप्राय प्रदर्शित किया है । शंकराचार्य भी यदि उनके पूर्व में हो गये होते तो उनके विचारों की आलोचना किये बिना हरिभद्र कभी नहीं चुप रह सकते । शंकराचार्य के विचारों की मीमांसा करने का तो हरिभद्र को खास असाधारण कारण भी हो सकता था । क्योंकि, शारीरिक भाष्य के दूसरे अध्याय के द्वितीय पाद में बादरायण के 'नैकस्मिन्नसम्भवात् । ३३ । एवं चात्माऽकात्र्त्यम् |३४| विकारादिभ्यः ॥ ३५ ॥ न च पर्यायादप्यविरोधो अन्त्यावस्थितेश्चोभयनित्यत्वादविशेषः | ३६ | इन ४ सूत्रों पर भाष्य लिखते हुए शंकराचार्य ने, जैनधर्म का मूल और मुख्य सिद्धान्त जो 'स्याद्वाद ( अनेकान्तवाद ) है उनके ऊपर अनेक असदाक्षेप किये हैं । हरिभद्र ने 'अनेकान्तजयपताका' में अनेकान्तवाद पर किये जाने वाले सभी आक्षेपों का विस्तृत रीतिसे निरसन किया है । इस ग्रंथ में तथा अन्य ग्रन्थों में भी उन्होंने ब्रह्माद्वैत मत की अनेक बार मीमांसा की है । ऐसी दशा में शंकराचार्य जैसे अद्वितीय अद्वैतवादी के विचारों का यदि हरिभद्र के समय में अस्तित्व होता ( और तिलक महाशय के कथनानुसार होना ही चाहिए था ) तो फिर उनमें सङ्कलित अनेकान्तवादपरक आक्षेपों का उत्तर दिये बिना हरिभद्र कभी नहीं मौन रहते । इसलिये हमारे विचार से शंकराचार्यं का जन्म हरिभद्र के देहविलय के बाद, अर्थात् प्रो० पाठक के विचारानुसार शक ७१० में होना विशेष युक्तिसंगत मालूम देता है । Jain Education International ww For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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