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________________ ( ७० ) ६--तेन यद्विनीतिदेवेन सामान्ययोर्वाच्यवाचकभावमङ्गीकृत्य निर्विकल्पकत्वमिन्द्रियविज्ञानस्य प्रतिपादितं तद्रूपितं भङ्ग्या। (पृ. २३-४). ये विनीतदेव राजा ललितचन्द्र के समकालीन थे । राजा ललितचन्द्र का समय अन्यान्य अनुमानों द्वारा ई. सन ७०८ के लगभग माना जाता है, अतएव विनीतदेव का भी वही समय मानना चाहिए। इस गणना से मल्लवादी के लेखानुसार विनीतदेव की व्याख्या पर आक्षेप करने वाले धर्मोत्तर का अस्तित्व या तो हरिभद्र के समय में स्वीकारना चाहिए या उसके अनन्तर । ऐसी दशा में तिब्बतीय इतिहास लेखक तारानाथ का यह कथन कि आचार्य धर्मोत्तर, काश्मीर के राजा वनपाल के समकालीन थे, जो ई. स. ८४७ के आसपास राज्य करता था। ३ हरिभद्र और मल्लवादी हरिभद्र और मल्लवादी आचार्य के सम्बन्ध में भी परस्पर इसी तरह की एक उलझन है । मल्लवादी नाम से प्रसिद्ध एक बहुत बड़े तार्किक विद्वान् जैनधर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में हुए हैं। उन्होंने जैनधर्म का सबसे गूढ़ और गम्भीर सिद्धान्त जो नयवाद कहलाता है, उस पर द्वादशारनयचक्र नामक एक विशाल और प्रौढ़ ग्रन्थ की रचना की है। हरिभद्रसूरि ने अपने अनेकान्तजयपताका नामक ग्रंथ में दो. तीन स्थानों पर उनका नामस्मरण किया है और उन्हें 'वादिमुख्य' बतलाकर सिद्धसेन दिवाकर प्रणीत 'सम्मतितर्क' का टीकाकार लिखा है । यथा १ द्रष्टव्य सतीश चन्द्र द्वारा लिखित 'मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का इतिहास, पृ. ११९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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