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________________ ( ५२ ) इस श्लोक का, 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' (उक्त प्रकरण में के चतुर्थ श्लोक) के 'प्रमाणपञ्चकाऽवृत्तस्तत्राभाव प्रमाणता' ।' इस श्लोकार्द्ध में केवल अर्थशः ही नहीं परंतु शब्दशः अनुकरण किया हुआ स्पष्ट दिखाई देता है। इसी तरह, मीमांसा-श्लोकवार्तिक के चोदना-सूत्र वाले प्रकरण मेंजहाँ पर वेदों की स्वतः प्रमाणता स्थापित करने की मीमांसा की हई है-निम्न लिखित श्लोकार्द्ध कुमारिल ने लिखा है :'तस्मादालोकवद् वेदे सर्वसाधारणे सति ।' मीमांसा श्लोकवार्तिक, पृ० ७४ । इसी श्लोकाद्ध को शास्त्रवार्तासमुच्चय के उक्त प्रकरण में हरिभद्र ने भी निम्नलिखित श्लोक में तद्वत्फक्त प्रारंभ के एक शब्द का परिवर्तन कर उद्ध त किया है । यथा आहचालोकवद्वेदे सर्वसाधारणे सति । धर्माधर्मपरिज्ञाता किमर्थं कल्प्यते नरः ॥ और फिर इस श्लोक की स्वोपज्ञ-व्याख्या में 'आह च कुमारिलादिः' इस प्रकार स्वयं ग्रंथकर्ता ने साथ में साक्षात् कुमारिल का नामोल्लेख भी कर दिया है। इस प्रमाण से यह ज्ञात हो गया कि हरिभद्र ने जैसे वैयाकरण भर्तृहरि की आलोचना की है वैसे ही भर्तृहरि के आलोचक मीमांसक कुमारिल की भी समालोचना की है। ऊपर लिखे मुताबिक प्रो० पाठक के निर्णयानुसार कुमारिल का समय जो ई० स० की ८ वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मान लिया जाय तो फिर हरिभद्र का समय भी वही मानना चाहिए। क्यों कि इस १. शास्त्र वार्ता समुच्चय, ( देव वंद ला. पुस्तकोद्वार फंड से मुद्रित ) पष्ठ ३४९ । २. शास्त्रवासिमुच्चय, पृ. ३५४. ३. अनेकान्त जयपताका की तरह इस ग्रन्थ पर भी हरिभद्र ने स्वयं एक संक्षिप्त व्याख्या लिखी है-जो उपलब्ध हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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