SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३४ ) सद्दीक्षादायकं तस्य स्वस्य चाहं गुरूत्तमम् । नमस्यामि महाभागं गर्गर्षिमुनिपुङ्गवम् ॥ प्रशस्ति के पाठ से यह भी ज्ञात होता है कि, गर्गर्षि मात्र सिद्धर्षि के 'दीक्षा गुरु' थे, बाकी और सब प्रकार का गुरुभाव उन्होंने दुर्गस्वामी में स्थापित किया है । क्योंकि दुर्गस्वामी की प्रशंसा में जब उन्होंने ५-६ श्लोक लिखे हैं और अपने को उनका 'चरणरेणुकल्प' लिखा है, तब गर्ग को केवल एक श्लोक में नमस्कार मात्र किया है। साथ में इस उपर्युद्धृत श्लोक में दुर्गस्वामी को भी दीक्षा देने वाले गर्गर्षि ही बतलाये हैं । इससे यह भी अनुमान होता है कि शायद, गर्गषि मूल सूराचार्य के शिष्य और देल्लमहत्तर के गुरुबन्धु होंगे।' उन्होंने दुर्गस्वामी को दीक्षा अपने हाथ से दी होगी, परन्तु गुरुतया देल्लमहत्तर का नाम प्रकट किया होगा ( - ऐसा प्रकार आज भी देखा जाता है और दूसरे ग्रंथों में इस प्रकार के उदाहरणों के अनेक उल्लेख भी मिलते हैं) । सिद्धषि को भी उन्होंने या तो दुर्गस्वामी के ही नाम से दीक्षा दी होगी, अथवा अपने नाम से दीक्षा देकर भी उनको दुर्गस्वामी के स्वाधीन कर दिये होंगे, जिससे शास्त्राभ्यास • आदि सब कार्य उन्होंने उन्हीं के पास किया होगा और इस कारण से सिद्धर्षि ने मुख्य कर उन्हीं को गुरुतया स्वीकृत किया है । यह चाहे जैसे हो, परन्तु कहने का तात्पर्य यह है कि सिद्धर्षि की प्रशस्ति के पाठ से तो उनके गुरु दुर्गस्वामी और साथ में गर्गषि ज्ञात होते हैं । ऐसी दशा में यहाँ पर, यह प्रश्न उपस्थित होता है कि डा० जेकोबी के कथनानुसार सिद्धर्षि को धर्मबोध करने वाले सुरि यदि साक्षात् रूप से आचार्य हरिभद्र ही होते तो फिर वे उन्हीं के पास दीक्षा लेकर उनके हस्तदीक्षित शिष्य क्यों नहीं होते ? गर्गषि और दुर्गस्वामी के शिष्य बनने का क्या कारण है ? इसके समाधान के लिये डा० जेकोबी ने कोई विचार नहीं किया । १. ऊपर का कथन लिखे बाद पीछे से जब प्रभावकचरित में देखा तो उसमें वही बात लिखी मिलीं जो हमने अनुमानित की है । अर्थात् इसके लेखक ने गर्ग को स राचार्य का ही 'विनेय' (शिष्य) लिखा है । यथा'आसन्निवत्तिगच्छे च सराचार्यों धियां निधिः । तद्विनेयश्च गर्गषिरहं दीक्षागुरुस्तव । ' Jain Education International प्रभावकचरित, पृ० २०१, श्लोक ८५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy