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________________ ( ३२ ) जेकोबी साहबने हरिभद्रसूरि के समग्र ग्रंथ देखे बिना ही-केवल षड्दर्शनसमुच्चय के बौद्धन्यायसम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण के लक्षण को देख कर ही उन्होंने जो धर्मकीर्ति के बाद हरिभद्र के होने का अनुमान किया है, वह निःसन्देह उनकी शोधक बुद्धि और सक्ष्म प्रतिभाका उत्तम परिचय देता है। क्योंकि, जैसा हम आगे चल कर सविस्तार देखेंगे, हरिभद्र ने केवल धर्मकीतिकथित लक्षणका अनुकरण मात्र ही नहीं किया है, परन्तु उन्होंने अपने अनेकान्तजयपताकादि दूसरे ग्रन्थों में उन महान् बौद्ध ताकिक के हेतुबिन्दु आदि ग्रंथों में से अनेक अवतरण भी दिये हैं और पचासों बार साक्षात् उनका स्पष्ट नामोल्लेख तक भी किया है । इसलिये डा० साहबका यह अनुमान निःसन्देहरूप से सत्य है कि धर्मकीर्ति हरिभद्र के पुरोयायी थे। परन्तु इस प्रमाण और कथनसे हरिभद्रका सिद्धर्षि के साथ एक काल में होना हम नहीं स्वी. कार कर सकते। यदि जेकोबी के कथन के विरुद्ध जानेवाला कोई निश्चित प्रमाण हमें नहीं मिलता, तब तो उनके उक्त निर्णय में भी अविश्वास लाने की हमें कोई जरूरत नहीं होती और न ही इस विषयके पुनर्विचार की आवश्यकता होती। परन्तु हमारे सम्मुख एक ऐसा. असन्दिग्ध प्रमाण उपस्थित है जो स्पष्टरूप से उनके निर्णय के विरुद्ध जाता है । इसी विरुद्ध प्रमाणकी उपलब्धि के कारण इस विषयकी फिरसे जाँच करने की जरूरत मालम पड़ी और तदनुसार प्रकृत उपक्रम किया गया है। तीसरा प्रमाण उन्होंने यह लिखा है-दशाश्रुतस्कन्धसूत्र की टीका के कर्ता ब्रह्मर्षि ने 'सुमतिनागिल चतुष्पदी' में लिखा है कि महानिशीथसूत्र के उद्धारकर्ता हरिभद्रसूरि वीरनिर्वाण बाद १४०० वर्षमें हुए । यथा'वरस चउदसे वीरह पछे, ए नथ लिखओ तेणे अ छे । दसपूर्वलग सूत्र कहाय, _ पछे न एकान्ते कहवाय ॥' इस कथनानुसार विक्रम संवत् ९३० में हरिभद्र हए ऐसा सिद्ध होता है। उनके बाद ३२ वें वर्ष में सिद्धर्षि ने उपमितिभवप्रपञ्चकथा बनाई । इस प्रमाणानुसार भी ये दोनों समकालीन ही सिद्ध होते हैं । ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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