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नेमिदूतम्
भवता पथि त्वया नेमिना मार्गे। क्वापि विलम्बः विलासाहे पर्वतादी कालक्षेपः न कार्यः । त्वद्वियोगातिदीना नेमेः विरहपीडादीना । सजलनयना सा त्वदम्बा मुक्ताहारा अश्रुलोचना भवतः नेमिरित्यर्थः माता परित्यक्ताहारा इति। अतः येन विधिना अतः तादशेन प्रकारेण, कायं त्यजति सा कृशतां जहाति । स त्वयैवोपाद्यः तादृशः व्यापारः भवतैव सम्पादनीयः ।। ३१ ॥
शब्दार्थः - अहम् -मैं ( राजीमती ), त्वाम्-तुमसे, याचे-प्रार्थना करती हूँ ( कि ), स्वा नगरी - अपनी द्वारिका नगरी, सपदि-शीघ्र, गन्तव्या-जाना है, भवता- आप, पथि-मार्ग में, क्वापि-किसी भी प्रकार का, विलम्बः-देर, न-नहीं, कार्यः-करें, त्वद्वियोगार्तिदीना-तुम्हारे वियोग में पीड़ित दीन, सजलनयना-अश्रुपूर्ण नेत्रों वाली, सा त्वदम्बा-वह तुम्हारी माता, मुक्ताहारा-भोजनादि का परित्याग ( कर दी है ), अतःइसलिये, येन-जिस, विधिना--प्रकार से, कार्यम् -दुर्बलता को, त्यजतिछोड़े, स:--वह उपाय, त्वया एव-तुम्हें ही, उपपाद्यः-करना चाहिए ।
अर्थः -(हे नाथ ! ) मैं ( राजीमती ) तुमसे प्रार्थना करती हैं कि ( तुमको) अपनी द्वारिका नगरी शीघ्र जाना है तथा आप मार्ग में विलासादि क्रियाओं द्वारा किसी प्रकार का विलम्ब नहीं करें ( क्योंकि ) तुम्हारे वियोग में पीड़ित अश्रुपूर्ण नेत्रों वाली तुम्हारी माता भोजनादि का परित्याग कर अत्यन्त दुर्बल हो गई हैं । अतः जिस उपाय से उसकी दुर्बलता दूर हो, ऐसा उपाय तुम्हें ही करना चाहिए। तस्याधस्ताद्विषमपुलिनां स्वर्णरेखामतीतो,
मार्गे द्रष्टा पुरमनुपमां तां भवान् वामनस्य । भुक्त्वा भोगोपचयमवनि नाकिनामागतानां,
शेषैः पुण्यैह तमिव दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम् ॥३२॥ अन्वय: - तस्याधस्ताद्, मार्गे, भवान्, विषमपुलिनाम् स्वर्णरेखाम्, अतीतः, वामनस्य, ताम्, अनुपमां पुरम्, द्रष्टा, (या), भोगोपचयम्, भुक्त्वा, अवनिम्, आगतानाम्, नाकिनाम्, शेषैः, पुण्यः, हृतम्, कान्तिमत्, एकम्, दिवः, खण्डम्, इव।
तस्येति। तस्याधस्ताद् केलिगिरेरधस्ताद् गच्छन् इति भावः। मार्गे भवान् पथि त्वं ( नेमिः )। विषमपुलिनां स्वर्ण रेखामतीत: निम्नोन्नतं तटं यस्याः
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