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नेमिदूतम्
रचयिता कवि 'मुनि धुरन्धर विजय' ( १९वीं शताब्दी ) हैं । इसकी कथावस्तु में कपडवणज में चातुर्मास्य कर रहे मुनि विजयामृतसूरि द्वारा अपने गुरु ( विजयने मिसूरि जो जामनगर में चातुर्मास्य कर रहे हैं ) के समीप अतीव श्रद्धा होने के कारण वन्दना एवं क्षमायाचना के लिए मयूर को दूत बनाकर गुरु के पास भेजा गया है। मेघदूत-समस्या-लेख
उपाध्याय 'मेघविजय' की १३० पद्यों में रचना है, जिसमें कवि ने मेघ के द्वारा गच्छाधिपति विजयप्रभसूरि के पास विज्ञप्ति भेजी है। इसका रचनाकाल १७२० विक्रमी = १६६३ ईस्वी है । वचनदूतम्
पूर्वार्ध और उत्तरार्ध के रूप में दो भागों में विभक्त इस काव्य के रचयिता 'पं० मूलचन्द्र शास्त्री' हैं। इस काव्य की कथावस्तु २२वें तीर्थङ्कर नेमिनाथ तथा राजीमती ( राजुल ) से सम्बन्धित है। काव्य के पूर्वार्ध में राजीमती ( राजुल ) के आत्मनिवेदन को प्रस्तुत किया गया है तथा उत्तरार्ध में वियोगिनी राजीमती की व्यथा को परिजनों द्वारा कहलाया गया है। शीलदूतम्
यह काव्य बृहत्तपागच्छीय 'चारित्रसुन्दरगणि' के द्वारा ( खम्भात में १४८२ वि० सं० = १४२५ ईस्वी में १२५ श्लोकों में ) रचित मेघदत के अन्त्य चरणों की समस्या-पूर्ति है। फलतः काव्य का रचना-काल १५ वीं शती का आरम्भ काल है । इसमें विरक्त तथा दीक्षित स्थूलभद्र को उसकी पत्नी कोशा गृहस्थाश्रम में आने के लिए आग्रह करती है, परन्तु स्थूलभद्र अपनी आस्था पर अडिग है और अपने शील के द्वारा धर्मपत्नी को भी जैनधर्म में दीक्षित कर लेता है। शील' की इस कार्य में हेतुता होने से ही यह 'शीलदूत' कहलाता है, अन्यथा यहाँ दूत की सत्ता नहीं है। १३१ पद्यों से संवलित इस काव्य में कोशा की विरहदशा का बड़ा ही सुन्दर चित्रण हुआ है। विस्तृत जानकारी के लिए देखें डॉ० रवि शंकर मिश्र लिखित 'जैनमेघदूत' की भूमिका। हंसपादाङ्कदूतम्
इस काव्य का सर्वप्रथम नामोल्लेख जैन विद्वान् 'श्री अमरचन्द्र नाहटा'
१. संस्कृत साहित्य का इतिहास, बलदेव उपाध्याय, पृ० ३२८ ।
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