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नेमिदूतम्
इति । पाणिग्रहणसमये इमां विहाय हे राजन् ! परिणयकाले विवाहकाले वा राजीमतीं त्यक्त्वा । अद्रि याते त्वयि गिरि प्रति गते सति । त्वयि वियोगे भवति नेम इति भावः विरहे । सपदि माल्यं त्वक्त्वा झटिति शीघ्रं वा जयमालां परित्यज्य । या त्वया प्राक् रचिता केशपाशी नेमिना पूर्व ग्रथिता न पुनः । तां कठिनविषमां, केशपाशीं परुषोच्चावचाम् ( कठिना चासो विषमा कठिनविषमा, कर्मधा०, ताम् ) । एकवेणीं करेण एकबन्धवतीं वेणी ( एकाचासौ वेणीं - एकवेणी, कर्मधा०, ताम् ) हस्तेन, गल्लाभोगात् करेण कपोल-प्रदेशात् ( गल्लस्य आभोगः - गल्लाभोगः, ष० तत्० तस्मात् ) । स्वे प्रदेशे निजे शिरोभागे, निधाय संस्थाप्य । एषा शिरसा राजीमती मस्तकेन वहति ।। ९५ ।। शब्दार्थः - पाणिग्रहणसमये - विवाहकाल में इमाम् - इस ( राजीमती ) को, विहाय — छोड़कर, अद्रिम् - रामगिरि पर याते ( सति ) - चले जाने पर, त्वयि - तुम्हारे ( नेमि के ), वियोगे - विरह में, सपदि - शीघ्र, माल्यम् - जयमाला को, त्यक्त्वा — त्याग करके, या जो चोटी, प्राक् — पहले, त्वया —तुम्हारे कारण, रचिता - गूंथी गई थी, ताम् —उस, कठिनविषमाम् — कठोर और टेढ़े-मेढ़े ( खुरदुरी), एकवेणीम् - एक गुच्छवाली चोटीको, करेण - हाथ से, गल्लाभोगात् - कपोल प्रदेश पर से ( हटाकर ), स्वे प्रदेशे - अपने शिरोभाग पर, निधाय — रखकर, धारण कर, एषा - यह राजीमती, शिरसा - शिर से, वहति — ढो रही है ।
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में इसको छोड़कर रामगिरि पर,
अर्थः ( हे राजन् ! ) विवाह - काल चले जाने पर तुम्हारे ( नेमि के ) विरह में शीघ्र जयमाला का त्याग करके जो चोटी पहले तुम्हारे कारण गूंथी गई थी उस कठोर और टेढ़े-मेढ़े एक गुच्छवाली चोटीको हाथ से कपोल- प्रदेश पर से भाग पर रखकर यह राजीमती शिर के द्वारा ढो रही है । गीताद्यैर्वा श्रुतिसुखकरैः प्रस्तुतैर्वा विनोदः,
हटाकर ) अपने शिरो
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पौराणीभिः कृशतनुमिमां त्वद्वियोगात्कथाभिः । तुष्टि नेतुं रजनिषु पुनर्नालिवर्गः क्षमोऽभूत्,
ता' मुन्निद्रामवनिशयनां सौधवातायनस्थः ॥ ६६ ॥ अन्वयः त्वद्वियोगात्, कृशतनुम्, इमाम्, सौधवातायनस्थः, आलिवर्गः, १. तामुनिद्रावनिशयनासन्नवातायनस्थः' इति पाठान्तरम् ।
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