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नेमिदूतम्
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बजसि हे नाथ ! त्वं कुत्र गच्छसि । अस्माभिरूचे तदनु सखीभिरूचे-रसिके ! भर्तुः स्मरसि कच्चित् ? हे विदग्धे ! स्वामिनः चिन्तयसि किम् ? हि त्वं तस्य यतः राजीमती नेमेः प्रिया असि येन नयनेनापि यतः नेमिना राजीमती नेत्रेणापि, नेक्षितासी: खलु निश्चयेनेव ।। ९२ ॥
शब्दार्थः - असौ-वह राजीमती, पितृगृहे-पिता के घर में, निशिरात्रि में, शय्योत्संगे-शय्या पर, निद्राम-निद्रा को, प्राप्य-प्राप्त कर, सोती हुई, पुरा-पहले, सहसा--अचानक, प्रबुद्धा-जागकर, इति-इस प्रकार से; ब्रु वाणा-कहती हुई, (कि ) स्वामिन्–हे नाथ, क्व-कहाँ, व्रजसि-जा रहे हो, ( पश्चात् ) अस्माभिः-हम ( सखी) लोगों के द्वारा, ऊचे-कहने पर (कि ) रसिके-हे विदग्धे, भर्तुः-स्वामी की, स्मरसि-याद कर रही हो, कच्चित्-क्या ?, हि-क्योंकि, त्वम्-तुम ( राजीमती), तस्य प्रिया--उस नेमि की प्रिया, येन-जिसके, नयनेनापि-नेत्र के द्वारा भी, न-नहीं, ईक्षितासी:- चाही गई हो; देखी गई हो, खलु-निश्चय ही। ____ अर्थः - ( हे राजन् ! ) वह राजीमती पितृगृह में रात्रि में शय्या पर निद्रा को प्राप्त करके पहले अचानक जागकर इस प्रकार से कहती हुई (कि ) हे स्वामि ! तुम कहाँ जा रहे हो ? ( पश्चात् ) हम ( सखी ) लोगों के द्वारा कहने पर ( कि )-हे विदग्धे ! स्वामी की याद कर रही हो क्या ? क्योंकि तुम उस नेमि की प्रिया हो जिसके द्वारा तुम नेत्र से भी नहीं देखी गई हो ।
टिप्पणीः - उक्त श्लोक के द्वारा कवि ने स्पष्ट कर दिया कि राजीमती का विवाह नेमिनाथ के साथ हुआ नहीं था; अपितु नेमि से विवाह होना निश्चित ही हआ था । अतः राजीमती को नेमिनाथ की विवाहिता पत्नी नहीं मानना चाहिए। एतद्दुःखापनयरसिके प्राक् सखीनां समाजे,
गायत्येषा कितव मधुरं गीतमादाय वीणाम् । त्वद्धचानेनापहृतहृदया गातुकामा ललज्जे,
भूयो भूयः स्वयमपि कृतां मूर्छनां विस्मरन्तौ ॥१३॥
अन्वयः - एतदुःखापनय, प्राक्, सखीनाम्, समाजे, वीणाम्, आदाय; कितव, मधुरम्, गीतम्, गायति ( सति ), त्वद्ध्यानेनापहृतहृदया, भूयः भूयः, स्वयम्, कृतामपि, मूर्च्छनाम्, विस्मरन्ती, गातुकामा, एषा, रसिके, ललज्जे ।
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