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नेमिदूतम्
शब्दार्थ:-तत्र-उस क्रीड़ा पर्वत पर, आसीन:-बैठी हुई, विद्यमान, किन्नरीभिः-किन्नर स्त्रियों के द्वारा, गीयमानम्-गाये जाते हुए, श्रुतिसुखकरम् -कर्णसुखद, मुररिपुयश:-विष्णु की कीर्ति को शृण्वन्-सुनते हुए, मुहूर्तम्-क्षण भर, निश्चलस्तिष्ठे:-रुक जाना, तथा, अश्मस्खलितरथजै:-शिलातल पर घर्षण होने से रथ से उत्पन्न, अम्बुराशेः ( इव )समुद्र की तरह, मेदुरैः-पुष्ट, गम्भीर, शब्दैः-ध्वनि के द्वारा, श्रवणपरुषैः-कर्णकठोर, गजितैः-गर्जनों से, क्रीडालोलास्ता:-क्रीड़ा में आसक्त उनको, न-नहीं, भायये:-भयभीत कर देना।
अर्थः - उस (क्रीडापर्वत ) पर आसीन किन्नर स्त्रियों द्वारा गाये जाते हुए कर्णप्रिय विष्णु की कीर्ति को सुनते हुए क्षण भर रुक जाना तथा पाषाण पर चलने से रथ से उत्पन्न समुद्र की पुष्ट ध्वनि की तरह कर्णकटु गर्जनों से क्रीड़ा में आसक्त उन ( किन्नरियों ) को भयभीत नहीं कर देना।
. टिप्पणी - भयार्थक णिजन्त / भायि+लिङ् लकार + मध्यम-पुरुष एकवचन । तत्र-यह अव्यय है 'तद्' शब्द से 'सप्तम्यास्त्रल', इस सूत्र से 'बल' प्रत्यय किया जाता है। सान्द्रोनिद्वार्जुनसुरभितं प्रोन्मिषत्केतकोक,
हृद्यं जातिप्रसवरजसा स्वादमत्तालिनादः। नत्यत्केकामुखरशिखिनं भूषितोपान्तभूमि,
नानाचेष्टर्जलदललितनिविशेस्तं नगेन्द्रम् ॥६६॥ अन्वयः - सान्द्रोन्निद्रार्जुनसुरभितम्, प्रोन्मिषत्केतकीकम्, जातिप्रसवरजसा; स्वादमत्तालिनादैः, हृद्यम्, नृत्यत्केकामुखरशिखिनम्, नानाचेष्टर्जलदकलितः, भूषितोपान्तभूमिम्, तम्, बगेन्द्रम्, निविशेः । ___ सान्द्रोन्निद्रार्जुनसुरभितमिति । सान्द्रोन्निद्रार्जुनसुरभितं प्रोन्मिषत्केतकीकं हे नाथ ! त्वं स्निग्धप्रफुल्लार्जुनपुष्पसुरभिसुगन्धितं विकसत्केतकीपुष्पम् । जातिप्रसवरजसा स्वादमत्तालिनादः हवं जातिपुष्पपरागास्वादोन्मत्तभ्रमरध्वनिभिः मनोज्ञम् । नृत्यत्केकामुखरशिखिनं नृत्यन्तः केकामुखरा:-बहिध्वनिबाघालाः शिखिन:-शुक्लापाङ्गाः यत्र तम् इत्यर्थः । नानाचेष्टर्जलदललितः अनेकक्रीडितैर्मेघविलासः । भूषितोपान्तभूमि-भूषिता-अलंकृता उपान्तभूमिः पर्यन्तावनिः यस्य तम् । तं नगेन्द्र निर्विशेः पूर्वोक्तं केलिशैलम् उपभुक्ष्व
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