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तीर्थकर (या जिन) : ७१ उसी समय निर्वाणकल्याणक हेतु इन्द्र सहित विभिन्न देवों का अवगमन हुआ।११९ ___आदिपुराण में ऋषभ के पिछले दस पूर्वभवों का भी वर्णन हुआ है जिसके अनुसार ऋषभ जीव पहले भव में जयवर्मा, दूसरे में महाबल, तीसरे में ललितांगदेव, चौथे में राजावज्रजंघ, पाँचवें में भोग-भूमि का आर्य, छठे में श्रीधर देव, सातवें में सुवधि, आठवें में अच्युतेन्द्र, नौवें में वज्रनाभि तथा दसवें में सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हआ और वहाँ से च्युत होकर सब इन्द्रों द्वारा वन्दनीय ऋषभदेव हुआ।१२०
सर्वप्रथम कुषाणकाल में ऋषभ की मूर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। मथुरा से प्राप्त मूर्तियों में कन्धों पर तीन या पाँच लटकती हुई केश वल्लरियों से सुशोभित ऋषभ को ध्यानमुद्रा में आसीन या कायोत्सर्ग में खड़ा दिखाया गया है। गुप्तकाल में मथुरा के साथ ही चौसा और अकोटा से भी ऋषभ की मतियाँ मिली हैं। ल० छठी शती ई० को अकोटा से प्राप्त ऋषभ की कायोत्सर्ग मूर्ति में यक्ष-यक्षी के रूप में सर्वानुभूति एवं अम्बिका का भी अंकन हुआ है। धोती से युक्त श्वेताम्बर परम्परा की अकोटा से प्राप्त उपर्युक्त उदाहरण में यक्ष-यक्षी निःसन्देह पारम्परिक नहीं है क्योंकि पारम्परिक यक्ष-यक्षी के रूप में गोमुख और चक्र श्वरी का उल्लेख मिलता है। ल० ७वीं शती ई० से सभी क्षेत्रों में ऋषभनाथ की स्वतंत्र मूर्तियाँ बनीं। यह उल्लेखनीय है कि उत्तर भारत के दिगम्बर स्थलों पर ऋषभ सर्वाधिक लोकप्रिय तीर्थंकर थे जिनकी मथुरा, देवगढ़, खजुराहो (चित्र २), राजगिर आदि स्थलों (चित्र १ ) पर सर्वाधिक मूर्तियाँ बनीं । किन्तु दक्षिण में उत्तर भारत की तुलना में ऋषभनाथ की बहुत कम मूतियाँ बनीं। यही कारण है कि राष्ट्रकूट कलाकेन्द्र एलोरा में ऋषभ की केवल पाँच मूर्तियाँ आकारित हैं जबकि पार्श्वनाथ और महावीर की क्रमशः २७ और १२ मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यही नहीं बादामी और अयहोल जैसे प्रारम्भिक चालुक्य स्थलों पर भी पार्श्वनाथ और महावीर की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हईं किन्तु ऋषभनाथ की मूर्ति नहीं बनी। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष के समकालीन जिनसेन के आदिपुराण में ऋषभनाथ के जीवनचरित्र की जिस विस्तार के साथ चर्चा मिलती है उस परिप्रेक्ष्य में एलोरा की जैन गुफाओं में ऋषभ की केवल पाँच मूर्तियों का मिलना विशेष आश्चर्यजनक है। इसी सन्दर्भ से यह भी आश्चर्यजनक है कि जहाँ ऋषभपुत्र बाहुबली
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