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________________ तीर्थकर (या जिन) : ६९ 'प्रजापति' कहलाये हैं । १०१ कर्मभूमि के समान ऋषभ वर्णव्यवस्था के भी जनक थे।१०२ _ऋषभ के संसार के प्रति विरक्ति एवं दीक्षा ग्रहण करने के सम्बन्ध में उल्लेख मिलता है कि एक दिन जब वे सभामण्डप में सिंहासन पर विराजमान थे उसी समय इन्द्र ने उनके मन को राज्य व सांसारिक भोगों से विरत करने के उद्देश्य से नीलांजना नाम की एक क्षोण आयु नृत्यांगना को ऋषभ के समक्ष उपस्थित किया जो नृत्य करते समय ही मृत्यु को प्राप्त हो गयी । १०3 इस घटना से ऋषभ को समस्त भोगों से विरक्ति हो गयी।१०४ इस अवसर पर लौकान्तिक देवों के आगमन तथा इन्द्र द्वारा ऋषभ के दीक्षा अथवा तपः कल्याणक करने का उल्लेख मिलता है । १०५ ऋषभ अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को साम्राज्य पद तथा बाहबली को यवराज पद पर अधिष्ठित कर स्वयं इन्द्र द्वारा उठाये गये पालकी में बैठ सिद्धार्थक नामक वन में गये और वहाँ वस्त्र, माला व अन्य आभूषणों का त्याग कर, पंचमुष्टियों से केश लुंचन कर दिगम्बर रूप धारण कर दीक्षा ग्रहण की । १०६ इन्द्र ऋषभ के केश क्षीर सागर में प्रवाहित कर तथा अनेक प्रकार से उनकी स्तुति कर स्वर्ग चले गये । ऋषभ के साथ चार हजार अन्य राजा भी दीक्षित हुए थे । उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में ऋषभ के चार मुष्टि केश लंचन का उल्लेख मिलता है। इन्द्र की प्रार्थना पर ऋषभ ने एक मुष्टि केश सिर पर ही रहने दिया था। उपर्युक्त परम्परा के कारण ही कुषाणकाल से सभी क्षेत्रों की मतियों में ऋषभनाथ के साथ कंधों पर लटकती हुई जटाएँ दिखाई गयीं। कल्पसूत्र एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में स्पष्ट उल्लेख है कि ऋषभ के अतिरिक्त अन्य सभी जिनों ने दीक्षा के पूर्व अपने मस्तक के सम्पूर्ण केशों का पाँच मुष्टियों में लंचन किया था।१०७ यद्यपि दिगम्बर परम्परा में ऋषभ के पंचमुष्टि केश लंचन का उल्लेख हुआ है किन्तु मूर्त उदाहरणों में एलोरा, देवगढ़, खजुराहो तथा अन्य सभी दिगम्बर स्थलों पर श्वेताम्बर उदाहरणों के समान ही ऋषभ के कन्धों पर लटकतो हुई जटाएँ दिखायी गयीं । १०८ दीक्षा धारण करने के पश्चात् ऋषभ छह माह तक उपवास का व्रत लेकर तपोयोग में अधिष्ठित हो गये । १०९ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में केवल सात दिनों के महोपवास व्रत का उल्लेख है ।११० छह माह के महोपवास व्रत के बाद भी उनका शरीर पहले की तरह ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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