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तीर्थकर (या जिन) : ६७ ऋषभ के गर्भावतरण के ६ माह पूर्व से ९ माह बाद तक देवों द्वारा रत्नों की वृष्टि की गयी। सर्वार्थसिद्ध विमान से च्युत होकर जिस समय ऋषभ का जीव मरुदेवी के गर्भ में आया, उस रात्रि मरुदेवी ने निम्नलिखित १६ शुभस्वप्नों का दर्शन किया 3-(१) गज, (२) वृषभ, (३) सिंह, (४) लक्ष्मी ( पद्मासीन और दो गजों द्वारा अभिषिक्त ), (५) दो पुष्पहार, (६) चन्द्र, (७) सूर्य, (८) मत्स्ययुगल, (९) कलशद्वय, (१०) पद्मसरोवर, (११) उद्वेलित समुद्र, (१२) सिंहासन, (१३) विमान, (१४) नागेन्द्र भवन, (१५) रत्नराशि तथा (१६) निधूम अग्नि । श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों की माताओं द्वारा केवल १४ स्वप्न ही देखने का उल्लेख मिलता है। ४ श्वेताम्बर सूची में नागेन्द्र भवन, सिंहासन तथा मत्स्ययुगल के स्थान पर सिंह ध्वज का उल्लेख है। एक बात विशेषरूप से स्मरणीय है कि अन्य सभी तीर्थंकरों की माताएँ शुभस्वप्नों में मुख में प्रवेश करता हाथी देखती हैं जबकि मरुदेवी ने अपने मुख में सुवर्ण के समान पीला वृषभ प्रवेश करते देखा था।५ ऋषभनाथ के वृषभ लांछन के निर्धारण में उपर्युक्त प्रसंग ध्यातव्य है।
स्वप्नदर्शन के पश्चात् मरुदेवी नाभिराज के पास आकर उपरोक्त १६ शुभस्वप्नों के बारे में बताती हैं और नाभिराज उन स्वप्नों का फल तथा ऋषभदेव के मरुदेवी के गर्भ में आगमन के बारे में बताते हैं। ऋषभ के गर्भावतरण के अवसर पर इन्द्र अन्य देवों के साथ अयोध्या नगरी में आते हैं और जिन माता-पिता को नमस्कार कर गर्भावतरण उत्सव करने के बाद दिक्कुमारियों को मरुदेवी की सेवा में नियुक्त कर वापिस चले जाते हैं।
तदनन्तर ९ महीने व्यतीत होने पर चैत्रकृष्ण नवमी के दिन मरुदेवी ने ऋषभ को जन्म दिया।“ श्वेताम्बर परम्परा में इनका जन्म चैत्रशुक्ल अष्टमी के दिन माना गया है । ९ ऋषभदेव का जन्माभिषेक करने के लिए इन्द्र-इन्द्राणी, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष तथा लोकपाल जाति के देवों के साथ अयोध्यापुरी आते हैं और जिन बालक को सुमेरू पर्वत पर ले जाकर सुवर्णमय कलशों में भरे क्षीरसागर के जल, गन्ध, अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप, फल व अर्घ के द्वारा ऋषभ का जन्माभिषेक करते हैं । १० श्वेताम्बर परम्परा में ऋषभ के नामकरण के सम्बन्ध में उल्लेख है कि मरुदेवी द्वारा स्वप्न में वृषभ को देखने तथा
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