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________________ सांस्कृतिक जीवन : २१३ माध्यमों में आभूषण सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है। यही कारण है कि विश्व की सभी सभ्यताओं में आभूषणों को धारण करने की परम्परा प्रारम्भ से ही सभी वर्गों और जातियों में मिलतो है । आभूषण नख से शिख तक के सभी अंगों में धारण किये जाते रहे हैं, किन्तु इसके उपादान का चुनाव समय, परिस्थिति, रुचि एवं आर्थिक तथा सामाजिक स्थितियों के आधार पर होता रहा है। यही कारण है कि घास, पत्ती, पुष्प, हड्डी एवं शीशे से लेकर कांसे, पीतल, चाँदी, सोने एवं रत्नों आदि तक के आभूषणों का निर्माण होता रहा है। जैन पुराणों में शारीरिक सौन्दर्य की अभिवृद्धि के लिए विभिन्न प्रकार के आभूषण धारण करने का उल्लेख है। उत्तरपुराण में कुलवती नारियों द्वारा अलंकार धारण करने का उल्लेख है जबकि विधवा स्त्रियों द्वारा इनके परित्याग का सन्दर्भ मिलता है। उत्तरपुराण में आभूषणों से अलंकृत होने के लिये 'अलंकरणगृह' तथा 'श्रीगृह'५ का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है । उत्तरपुराण में भोग-भूमि काल में भूषणांग तथा मालांग जाति के ऐसे वृक्षों का उल्लेख है जो क्रमशः नपुर, बाज बन्ध, रुचिक, अंगद, मेखला, हार व मुकुट तथा विविध ऋतुओं के पुष्पों से निर्मित मालाएँ तथा कर्णफूल इत्यादि प्रदान करते थे। आदिपुराण की यह अवधारणा स्पष्टतः भारतीय परम्परा की पूर्ववर्तो कल्पवृक्ष को परिकल्पना तथा शुग-कुषाणकालीन ( भरहुत, सांची, मथुरा) ऐसे कल्पवृक्षों के शिल्पांकन से प्रभावित है जिनमें विभिन्न प्रकार के आभूषणों और वस्त्रों को कल्पवृक्ष से लटकते हुए दिखाया गया है। ज्ञातव्य है कि दिगम्बर परम्परा के पूर्वग्रन्थ तिलोयपण्णत्ति ( १.४.३४२-३५४ ) में कल्पवृक्षों की सूची में भूषणांग एवं मालांग के भी नाम दिये हैं। आभूषण निर्माण के उपादान : ___जैन पुराणों में आभूषणों का निर्माण रजत, स्वर्ण तथा मणि आदि से होने का सन्दर्भ मिलता है। उत्तरपुराण में स्वर्ण को अग्नि में तपाकर शुद्ध करने के उपरान्त ही उससे आभूषण बनाने का उल्लेख है। समुद्र में महामणि के बढ़ने का भी उल्लेख मिलता है। रत्नजटित स्वर्णाभूषणों को रत्ना-भूषण कहा जाता था। जैन पुराणों में विभिन्न मणियों का सन्दर्भ मिलता है जिनका प्रयोग अधिकांशतः आभूषणों के निर्माण में किया जाता था। इनमें चन्द्रकान्तमणि, सूर्यकान्तमणि, होरा, वैदूर्यमणि, कौस्तुभमणि, मोती, इन्द्रमणि, जात्यंजय ( कृष्णमणि), पद्मराग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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