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अष्टम अध्याय सांस्कृतिक जीवन
भारतीय संस्कृति में सत्य और शिव के साथ ही सुन्दर को भी महत्त्व दिया गया है। भारतीय धर्म और दर्शन के सौन्दर्यबोध के कारण ही सत्य, शिव और सुन्दर तीनों की एकात्मकता स्थापित हुई । इसी कारण प्रसंग चाहे उपास्य देवों का हो या अप्सराओं या नायिकाओं का या फिर सामान्य स्त्री-पुरुषों का, सभी के सन्दर्भ में उनके आन्तरिक या आध्यात्मिक स्वरूप और शक्ति के साथ ही बाह्य स्वरूप या रूप पक्ष की महत्ता को भी स्वीकार किया गया। फलतः मूर्त अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों एवं साहित्य को विभिन्न विधाओं में देव, मानव, पशु एवं वनस्पति जगत को सुन्दर बताया और दिखाया गया। जैन साहित्य और कला भी इसका अपवाद नहीं है । इसी कारण धर्म और दर्शन से सम्बन्धित चर्चा के साथ ही जैन ग्रन्थों में सांस्कृतिक जीवन के विविध पक्षों और अपने आसपास के परिवेश के प्रति जागरुकता और सौन्दर्यबोध का भाव भी उजागर हुआ है। इस दृष्टि से महापुराण निःसंदेह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
धर्म और दर्शन यद्यपि प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति के मुख्य आधार-स्तम्भ रहे हैं किन्तु जीवन और उसके भौतिक साधनों से भी मनुष्य को सर्वदा लगाव रहा है। सुनियोजित नगर, सुसज्जित राजसभायें, वादक, नर्तक, विविध आकार-प्रकार के वस्त्र, आभूषण और केशविन्यास आदि भारतीय जीवन और संस्कृति के प्रतीक थे। आदिम अवस्था में जब मनुष्य की आवश्यकतायें अत्यन्त सीमित थीं और उसके जीवन का एकमात्र आधार आखेट था, मनुष्य प्रकृति द्वारा प्रदत्त सामग्रियों से ही अपना शृंगार करता था और अपने वस्त्र एवं आभूषणों की आवश्यकता को पूर्ण करता था। मनुष्य की आवश्यकता और भारतीय संस्कृति के प्रति उसके लगाव ने ही तत्सम्बन्धी कलाओं को जन्म दिया। परिणामस्वरूप वस्त्रों की कताई-बुनाई, आभूषणों के निर्माण, केशों की विभिन्न शैली में रचना, पुष्पों की माला, अनुलेप, सुगंधि, नृत्य-संगीत आदि से सम्बन्धित कलाओं का जन्म हुआ।'
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