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________________ सप्तम अध्याय स्थापत्य : मन्दिर, समवसरण, राजप्रासाद एवं सामान्य भवन जैनधर्म में अनेकान्त के अनुरूप जीवन के सभी महत्त्वपूर्ण पक्षों पर यथोचित ध्यान दिया गया है । जैन कला का उद्देश्य जीवन का उत्कर्ष रहा है । उसकी समस्त प्रेरणा धार्मिक रही है और उसके द्वारा जैन. तत्त्वज्ञान व आचार के आदर्शों को मूर्तिमान रूप देने का प्रयत्न किया गया है।' कला का ध्येय जीवन का उत्कर्ष है, यह बात जैन कलाकृतियों के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। जैन आगम में उल्लेख है कि बालकों के शिक्षण काल में शिल्प व कलाओं की भी शिक्षा दी जाती थी। समवायांगसूत्र में उल्लिखित ७२ कलाओं के अन्तर्गत वास्तुकला का भी उल्लेख है ।२ स्वयं आदितीर्थंकर ऋषभनाथ ने असि, मसि, ऋषि, वाणिज्य एवं व्यापार के साथ ही शिल्प की भी शिक्षा दी थी। मानसार के अनुसार भूमि, हर्म्य ( भवन आदि), मान एवं पर्यक से 'वास्तु' शब्द का बोध होता है। वास्तु की इस चतुर्मुखी व्यापकता की व्याख्या करते हुए प्रसन्न कुमार आचार्य ने वास्तु विश्वकोश (१० ४५६ ) में लिखा है कि हर्म्य में प्रासाद, मण्डप, सभा, शाला तथा रंग सभी सम्मिलित हैं । यान आदि से स्पन्दन, शिबिका एवं रथ का बोध होता है। पर्यंक के अन्तर्गत पंजर, मेंचली, मंच फलकासन तथा बाल-पर्यक आते हैं। वास्तु शब्द ग्रामों, दुर्गों, पत्तनों, पुरों, पुट-भेदनों, आवास भवनों एवं निवेश्य-भूमि का भी वाचक है । मूर्तिकला भी वस्तुतः वास्तुकला की ही सहचरी कही जा सकती है। __ जैन आगम में वास्तु पाठकों का उल्लेख उपलब्ध है जो नगर निर्माण के लिये इधर-उधर भ्रमण किया करते थे। महापुराण में अभियन्ता के लिये 'स्थपति' शब्द का प्रयोग हुआ है। स्थपति का प्रयोग जैनेतर ग्रन्थ मानसार', मयमत और समरांगणसूत्रधार आदि शिल्पशास्त्रों में भी हुआ है । स्थपति ही विभिन्न प्रासादों आदि का निर्माण करते थे। जैन पुराणों में स्थापत्य के अन्तर्गत नगर विन्यास (परिखा, वज्र, प्राकार, द्वार एवं गोपुर तथा रथ्या), दुर्ग, भवन (सामान्य भवन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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