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प्राक्कथन प्रस्तुत ग्रन्थ “बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा' राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से १९८९ ई.में पी-एच.डी.उपाधि के लिए स्वीकृत बौद्ध प्रमाणवाद का जैन दृष्टि से परीक्षण' विषयक शोध-प्रबन्ध का संशोधित रूप है । इस ग्रन्थ में बौद्ध एवं जैन प्रमाण-शास्त्र को संक्षेप में प्रस्तुत करते हुए जैन दार्शनिकों के द्वारा की गई बौद्ध मत की आलोचना का समीक्षण किया गया है।
भारतीय धर्म-दर्शन का जब वैदिक एवं श्रमण धाराओं में वर्गीकरण किया जाता है तो जैन एवं बौद्ध दर्शन श्रमणधारा में प्रमुखता से उभरकर आते हैं। श्रमण' शब्द इन धर्म-दर्शनों की आचार-परम्परा में रही हुई समता की ओर संकेत करता है ।आचार-मीमांसा एवं संस्कृति की दृष्टि से समानता होने पर भी इन दर्शनों की तत्त्वमीमांसा एवं प्रमाणमीमांसा में पर्याप्त मतभेद हैं ।प्रमाणमीमांसा-विषयक मतभेद का आधार प्रायः तत्त्वमीमांसागत भेद ही रहा है ।बौद्ध तत्त्वमीमांसा क्षणिकवाद अथवा विज्ञानवाद पर टिकी हुई है तो जैन तत्त्वमीमांसा नित्यानित्यवाद पर टिकने के साथ स्व की भांति बाह्यार्थ को भी सत् स्वीकार करती है । यही कारण है कि बौद्ध प्रमाण-मीमांसा जहां जटिल एवं तार्किक प्रतीत होती है वहां जैन प्रमाण-मीमांसा संव्यवहार के लिए उपयोगी सिद्ध होती है। .
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा का व्यवस्थित प्रारम्भ पांचवी शती में दिङ्नाग के प्रमाणसमुच्चय से हुआ। बौद्ध-न्याय के पिता आचार्य दिङ्नाग के अनन्तर ही न्याय,मीमांसा एवं जैन दर्शनों में पृथक् प्रमाण-शास्त्रीय ग्रन्थों के निर्माण को दिशा मिली। उनके पूर्व भारतीय दर्शन में न्यायसूत्र,चरकसंहिता,उपायहृदय ,अनुयोगद्वार सूत्र आदि ग्रन्थों में प्रमाण-निरूपण अवश्य मिलता है, किन्तु स्वतन्त्र रूप से किसी भी दर्शन में प्रमाण-शास्त्रीय ग्रन्थों का निर्माण प्रारम्भ नहीं हुआ था। बौद्धदर्शन में शून्यवादी नागार्जुन ने जहां प्रमाण का निरसन किया है वहां दिङ्नाग ने प्रत्यक्ष एवं अनुमान के रूप में दो प्रमाण एवं स्वलक्षणं और सामान्यलक्षण के रूप में दो प्रमेय स्वीकार कर प्रमाणमीमांसा का व्यवस्थित ढांचा खड़ा किया। दिङ्नाग द्वारा प्रवर्तित बौद्ध प्रमाण-मीमांसा को धर्मकीर्ति, धर्मोत्तर, अर्चट, प्रज्ञाकर गुप्त, शान्तरक्षित, कमलशील आदि आचार्यों ने विकसित एवं सुव्यवस्थित किया।
जैन दर्शन में प्रमाण-शास्त्र की प्रथम रचना सिद्धसेन (पांचवी-छठी शती) का न्यायावतार है।इस दृष्टि से सिद्धसेन को जैनन्याय का पिता कहा जा सकता है । बत्तीस कारिका परिमित न्यायावतार में सिद्धसेन ने प्रमाण का व्यवस्थित प्रतिपादन किया है; किन्तु आठवीं शती में भट्ट अकलङ्क ने जैन न्याय को अधिक व्यवस्थित एवं व्यापक स्वरूप प्रदान किया ।उन्होंने स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को भी प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित किया । इसलिए अकलङ्क ही जैन न्याय के प्रतिष्ठापक आचार्य माने जाते हैं ।उनके पूर्ववर्ती सुमति, पात्रस्वामी आदि अन्य प्रसिद्ध दार्शनिकों की रचनाएं सम्प्रति अनुपलब्ध हैं । भट्ट अकलङ्क के अनन्तर विद्यानन्द,
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