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________________ प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा हम यहां पर दिइनाग धर्मकीर्ति,धर्मोत्तर,प्रज्ञाकरगुप्त,अर्चट,शान्तरक्षित,कमलशील,दुर्वेकमिश्र आदि समस्त बौद्ध नैयायिकों को किञ्चित् मान्यता भेद होते हुए भी दिङ्नाग-सम्प्रदाय में रखकर समस्त बौद्ध प्रमाणमीमांसा को दिङ्नाग की सम्प्रदाय का अंग समझेंगे। दिङ्नाग (४७० से ५३० ई०) ___दिङ्नाग बौद्ध-न्याय अथवा बौद्ध प्रमाण-शास्त्र के पिता थे। तिब्बतियों ने उनको जम्बूद्वीप का अलंकार कहा है। सतीशचन्द्र विद्याभूषण आदि विद्वानों ने दिङ्नाग को न केवल बौद्ध न्याय का पिता कहा है,अपितु उन्हें मध्यकालीन भारतीय न्यायशास्त्र का जन्मदाता माना है।७५ दिङ्नाग काञ्ची में पैदा हुए,किन्तु उनके समय के सम्बन्ध में अनेक विप्रतिपत्तियां रही। आचार्य राहल सांकृत्यायन ने उन्हें ४२५ ई. तथा ७६ ई० फ्राउवालनर ने (द्रष्टव्य - landmarks)उन्हें ४८० से ५४० ई.,के मध्य सिद्ध किया है । मसाकी हत्तौड़ी कुछ संशोधन के साथ उनका काल ४७० से ५३० ई. सिद्ध करते हैं।७७ ई० फ्राउवालनर द्वारा निर्धारित समय अधिक प्रचलन में रहा है, किन्तु जैन दार्शनिक मल्लवादी जिन्होंने अपनी कृति द्वादशारनयचक्र में दिङ्नाग मन्तव्यों को शब्दशः उद्धृत किया है,की प्रशस्ति उन्हें इससे भी पूर्व ले जाती है। क्योंकि प्रशस्ति मल्लवादी को विक्रम सं० ४१४ (३५७ ई०) में निर्धारित करती है। दिङ्नाग के पूर्व गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन द्वारा भाष्य रच दिया गया था,किन्तु भाष्य का प्रतिद्वन्द्वी न्याय का कोई ग्रंथ नहीं था। दिइनाग ने उसे नई दिशा दी,तथा बौद्ध विज्ञानवादी दृष्टि से सौत्रान्तिक दृष्टि का भी समावेश करते हुए न्याय की नवीन प्रस्थापना की। यदि दिइनाग अपनी न्यायविषयक रचना न करते तो न्यायशास्त्र का जो विशाल साहित्य रचा गया है संभवतः वह न रचा जाता । दिइनाग ने न्यायशास्त्र के फैलाव में चिनगारी का काम किया। दिङ्नाग की न्यायविषयक अवधारणाओं,चिन्तनाओं एवं प्रस्थापनाओं को प्रत्युत्तरित करने के लिए न्यायदर्शन में उद्योतकर, मीमांसादर्शन में कुमारिलभट्ट एवं प्रभाकर गुरु जैन दर्शन में मल्लवादी जैसे विशिष्ट आचार्यों ने विस्तृत, गहन एवं युक्तिपूर्ण रचनाओं को जन्म दिया। बस फिर क्या था, धीरे धीरे सभी दर्शनों में न्याय या प्रमाणशास्त्र के स्थापन की दृष्टि विकसित होती गई और पारस्परिक खण्डन-मण्डन तथा वाद के द्वारा प्रमाणशास्त्रीय ग्रंथों का निर्माण होता चला गया। बौद्धाचार्य दिङ्नाग जाति से ब्राह्मण थे। उनके प्रथम गुरु वात्सीपुत्रीय नागदत्त थे एवं द्वितीय ७४. तिब्बती विद्वानों ने नागार्जुन,आर्यदेव, असंग, वसुबन्ध, दिङ्नाग एवं धर्मकीर्ति इन छह मारतीय दार्शनिकों को जम्बूद्वीप का अलंकार (Ornaments of Jambudvip) माना है।- Shastri D.N., Critique of Indian Realism p.1. ७५. A History of Indian Logic, p. 270 ७६.(१) दर्शन -दिग्दर्शन, पृ०७४० (२) बलदेव उपाध्याय ३४५-४२५ ई० का काल मानते हैं, ।-बौद्धदर्शन मीमांसा, पृ० २०४ ७७. Dignaga, On perception, Introduction, p.2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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