________________
प्रमेय प्रमाणफल और प्रमाणाभास
३७७
अक्षणिक या नित्य मानना होगा। यदि ज्ञानगत नील आदि आकार से क्षणिकत्वादि आकार अभिन्न हैं तो जो ज्ञान नीलाकार होकर नीलादि को जानता है वही उससे अभिन्न क्षणिकत्व को भी जान लेगा। फलतः क्षणिकता की सिद्धि के लिए ‘सर्व क्षणिकं सत्त्वात्' अनुमान वाक्य वृथा सिद्ध होताहै ।१३५
बौद्ध दार्शनिकों का मन्तव्य है कि जो ज्ञानोत्पत्ति में कारण है वही अर्थ ज्ञान का ग्राह्य या परिच्छेद्य होता है, किन्तु उनका यह मन्तव्य उचित नहीं है क्योंकि इस स्थिति में योगियों के द्वारा मात्र पुरोवर्ती अर्थों का ही ज्ञान हो सकेगा। वर्तमान कालीन एवं भूतकालीन पदार्थ अनुपलब्ध होने से ज्ञान की उत्पत्ति के कारण नहीं बन सकेंगें,अतः योगियों द्वारा इनका ज्ञान नहीं हो सकेगा और इस प्रकार बौद्ध सम्मत सर्वज्ञ की भी सिद्धि संभव नहीं होगी। १३६
प्रत्यक्ष ज्ञान में प्रत्येक स्वलक्षण परमाणु अपना आकार ज्ञान में पृथक् पृथक् रूप से समर्पित करते हैं अथवा संघात रूप से ? पृथक् पृथक रूप से तो स्वलक्षण परमाणुओं का ज्ञान में अवभासन होता नहीं है । यदि संघात रूप से आकार समर्पित करते हैं तो स्वलक्षण स्वरूप का परित्याग हो जाता है । ज्ञान में स्थूलादि आकार का प्रतिभास होताहै,किन्तु परमाणु स्थूल आदि आकार से रहित होने के कारण ऐसा आकार प्रदान नहीं कर सकते । यदि समुदित परमाणुओं का ही प्रत्यक्ष होता है तो परमाणु संघात के समान ज्ञान में त्रिकोणता, चतुष्कोणता,दीर्घता,हस्वता,परिमण्डल,सम-विषमादि आकार भी गृहीत होने चाहिए तथा जलधारण करना, लाना आदि अर्थक्रियाकारित्व एवं बाह्य इन्द्रियप्रत्यक्षता भी उस ज्ञान में घटित होनी चाहिए"१३७
ज्ञान को निराकार स्वीकार करने पर भी प्रतिनियतार्थप्राहक-व्यवस्था संभव है। निराकार ज्ञान अपना एवं अर्थ का नियत प्रकाशक होता है। उसका स्वरूप ही एक ज्ञान को दूसरे ज्ञान से व्यावृत्त करता है। स्वगत धर्म की अपेक्षा से ही पदाथों में व्यावृत्ति का होना उचित है, अन्य अर्थ के धर्म की अपेक्षा से नहीं। ज्ञान का आकार उसकी स्वपरप्रकाशकता है,नीलादिपना नहीं । ज्ञान में ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जन्य ऐसा सामर्थ्य है कि जिससे ज्ञान निराकार रहकर भी नियत अर्थों का व्यवस्थापक बन जाता है । यह दूर है,निकट है,यह घट है ,यह पट है आदि समस्त व्यवहार नियत रूप से सम्पन्न हो जाते हैं।यह क्षयोपशमजन्य योग्यता ही पुरोवर्ती समस्त अर्थों का व्यवस्थायुक्त ज्ञान करने में समर्थ है। ज्ञान को निराकार मानने पर समस्त अर्थों का ज्ञान एक साथ हो जायेगा,ऐसी आशंका करना उपयुक्त नहीं है,क्योंकि निराकार ज्ञान भी इन्द्रियों के द्वारा पुरोवर्ती अर्थ को ही जानने
१३५.(१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २९१
(२) बौद्ध दार्शनिक क्षणिकता की सिद्धि प्रत्यक्ष से न १३६. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ० १३ १३७. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १६९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org