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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
प्रभाचन्द्र - प्रभाचन्द्र ने बौद्धों के साकारवाद को पूर्वपक्ष १२१ में रखकर उसका विधिवत् खण्डन किया है। वे प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र में विविध प्रकार से ज्ञान की अर्थकारणता एवं उसके अर्थ सारूप्य का निराकरण करते हैं।
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पूर्वपक्ष- बौद्धों का मंतव्य है कि आकार के अभाव में एक ज्ञान का दूसरे ज्ञान से व्यावर्तन नहीं हो सकता। इसलिये यह नील अर्थ का ज्ञान है, यह पीत अर्थ का ज्ञान है इत्यादि प्रतिकर्मव्यवस्था के लिये ज्ञान में अर्थाकारता का होना आवश्यक है । नियत कर्म वाली अधिगति के लिये अर्थाकारता ही प्रमाण है, क्योंकि उसी से प्रतिकर्म व्यवस्था शक्य होती है। १२२ निराकार ज्ञान सब अर्थों के प्रति समान होता है। उससे समस्त अर्थों का ज्ञान एक साथ होने की आपत्ति आती है। फलतः निराकार ज्ञान से प्रतिकर्मव्यवस्था घटित नहीं होती है। वस्तुतः अर्थाकारता के बिना ज्ञान को प्रतिनियत अर्थ से योजित नहीं किया जा सकता। इसलिये प्रमेय की अधिगति का साधन जो प्रमेयाकारता है वह प्रमाण कही गयी है।
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उत्तरपक्ष - प्रभाचन्द्र बौद्धमत का खण्डन करते हुए प्रतिपादित करते हैं कि अर्थ से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है । वस्तुत: योग्यतालक्षण से ही ज्ञान समकालीन अथवा भिन्नकालीन अर्थ को ग्रहण करता है। ज्ञान के साकार होने का प्रत्यक्ष से विरोध आता है। प्रत्येक पुरुष को प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा विषयाकारता से रहित घटादि का ग्राहक ज्ञान ही अनुभव में आता है, दर्पणादि के समान प्रतिबिम्बित नहीं । अनुमान प्रमाण द्वारा भी ज्ञान की अर्थाकारता सिद्ध नहीं होती, क्योंकि जो जिसका ग्रहण करता है वह उस रूप नहीं होता यथा स्तम्भादि की जड़ता को ग्रहण करने वाला ज्ञान जड़रूप नहीं होता। इसी प्रकार अपने से भिन्न नीलादि अर्थ का ग्राहक ज्ञान नीलाद्याकार नहीं होता है । १२४
यदि ज्ञान विषय के आकार को धारण करता है तो दूर-निकट आदि का व्यवहार नहीं हो सकता । क्योंकि जब दूर- निकट स्थित समस्त वस्तुओं का आकार ज्ञान में विद्यमान है तो उस ज्ञान में उन वस्तुओं की दूरी या निकटता का अन्तर नहीं रह जाता। दूसरी बात यह है कि ज्ञान में वस्तु का आकार गृहीत होने पर कालव्यवधान के कारण वह वस्तु दूर प्रतीत होनी चाहिये, क्योंकि उस वस्तु के आकार के अनन्तर ज्ञान में अन्य वस्तुओं का आकार भी गृहीत हो गया है। १२५
प्रभाचन्द्र बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि ज्ञान की साकारता से क्या आशय है ? स्वसंविद्रूपता को साकारता कहते हो, या ज्ञान का वैशद्यादि स्वभाव साकारता है, या अर्थ के आकार का उल्लेख करना
१२१. न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० १६५-१६६
१२२. तत्रानुभवमात्रेण ज्ञानस्य सदृशात्मनः ।
भाव्यं तेनात्मना येन प्रतिकर्म विभज्यते ॥ - प्रमाणवार्तिक, २.३०२
१२३. अर्थेन बटयत्वेनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् ।
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता || प्रमाणवार्तिक २.३०५-३०६ १२४. न्यायकुमुदचन्द्र पृ० १६७ एवं प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २७७ १२५. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-१, पृ० २७७-७८
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