________________
प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास
३६९
अकलङ्क के अनुसार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम या क्षय से उत्पन्न हुआ ज्ञान स्वयं नियत अर्थ का प्रकाशक होता है । ४ अर्थ के प्रकाशन में वे इन्द्रिय,मन आदि को निमित्त स्वीकार करते हैं, किन्तु बाह्य अर्थादि को नहीं।५ इन्द्रिय,मन आदि को निमित्त स्वीकार करना आगमापेक्ष तो है ही,किन्तु व्यावहारिक भी है। क्योंकि इन्द्रिय,मन आदि के निमित्त से ही मतिज्ञान अथवा बाह्य अर्थों का ज्ञान संभव होता है।
अकलङ्कने प्रतिपादित किया है कि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता है,अतःउसे अर्थाकार मानना युक्ति संगत नहीं है । ज्ञान की अर्थकारणता एवं अर्थाकारता का प्रतिषेध करने हेतु अकलङ्कने अनेक तर्क दिए हैं तथा क्षायोपशमिक ज्ञान को ही नियत प्रमेय का प्रकाशक सिद्ध किया है । अकलङ्क कहते हैं कि ज्ञान में अर्थ को जानने की स्वतः योग्यता होती है।८६ वह अर्थ से उत्पन्न होकर अर्थ को नहीं जानता,क्योंकि अर्थ ज्ञान का विषय है । जिस प्रकार प्रदीप घट से उत्पन्न हुए बिना घट का प्रकाशक होता है। उसी प्रकार ज्ञान भी अर्थ से उत्पन्न न होते हुए भी अर्थ का प्रकाशक होता है । ज्ञान की उत्पत्ति में अर्थ कारण नहीं है,क्योंकि ज्ञान, इन्द्रिय एवं मन के निमित्त से उत्पन्न होता है। यह अर्थ है' ऐसा तो हमें ज्ञान होता है, किन्तु यह ज्ञान अर्थ से उत्पन्न हुआ है,ऐसा ज्ञान नहीं होता । ८८ इसलिए ज्ञान को अर्थ से उत्पन्न बतलाना युक्तिसंगत नहीं है । यदि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता तो कुलाल आदि के द्वारा घट की उत्पत्ति के समान इसकी उत्पत्ति में भी विवाद न होता । यदि अर्थ ज्ञान की उत्पत्ति में कारण होता तो किसी को कभी विपरीत प्रतिपत्ति अथवा प्रान्तज्ञान नहीं होता। फिर श्वेतशंख में पीताकार शंख की प्रतीति नहीं हो सकती थी तथा मरने के इच्छुक पुरुष को अर्थ के सद्भाव में भी विपरीत ज्ञान नहीं हो सकता था। यदि अर्थ के साथ ज्ञान की उत्पत्ति का अन्वय -व्यतिरेक सम्बन्ध होता तो संशयादि की उत्पत्ति भी संभव नहीं थी।९०
अर्थ को ज्ञान की उत्पत्ति में इसलिए भी कारण नहीं कहा जा सकता,क्योंकि अर्थ ज्ञानोत्पत्ति रूप कार्य के पहले ही निवृत्त हो जाता है,तथा ज्ञान अर्थ के निवृत्त होने पर भी या अभाव में भी देखा जाता है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान की उत्पत्ति के पूर्व अर्थ अज्ञात रहता है.अतः अज्ञात अर्थ को ८४. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण, ८०(२) ८५. द्रष्टव्य, यही अध्याय, पादटिप्पण ८३(२) ८६. अर्थग्रहणं योग्यतालक्षणम्-लघीयस्त्रयवृत्ति, ५, अकलङ्कगंधत्रय, पृ० २.२४ ८७.अर्धस्य तदकारणत्वात् तस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् । अर्थस्य विषयत्वात् । न हि तत्परिच्छेद्योऽर्थः तत्कारणतामा
त्मसात् कुर्यात् प्रदीपस्येव घटादिः ।- लषीयस्वयवृत्ति, ५२, अकलङ्कगंधत्रय, पृ० १८.१२-१३ ८८.अयमर्थ इति ज्ञानं विद्यान्नोत्पत्तिमर्थतः ।
__ अन्यथा न विवादः स्यात् कुलालादिघटादिवत् ।।-लघीयत्रय,५३ -८९. काचाद्युपहितेन्द्रियाणां शंखादी पीताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः मुमूर्षाणां यथासम्भवमचे सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात्
नार्थादयः कारणं ज्ञानस्येति स्थितम्।-लषीयस्वयवृत्ति, ७,अकलांधत्रय, पृ० २०.२ ९०. अन्वयव्यतिरेकाभ्यामर्थश्चेत् कारणं विदः।
संशयादिविदुत्पादः कौतस्कुत इतीक्ष्यताम् ।।-लषीयलय,५४ । ९१. नार्थः कारणं विज्ञानस्य कार्यकालमप्राप्य निवृत्तेः अतीततमोवत् ।-लघीयस्वयवृत्ति, ५८,अकलत्रय, प०२०८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org