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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
स्थापित करते हुए ज्ञान में रहे हुए अर्थसारूप्य को प्रमाण तथा अर्थाधिगति को फल" कहकर दोनों में भिन्नता का प्रतिपादन किया है। यद्यपि ज्ञान एक है, तथापि उसके दो पहलू हैं-एक प्रमाणात्मक तथा दूसरा प्रमाण-फलात्मक । जब हम किसी बाह्य अर्थ का ज्ञान करते हैं तो हमारे ज्ञान में बाह्य अर्थ का आकार गृहीत होता है अथवा हमारा ज्ञान बाह्य अर्थ से सारूप्य रखता है,तभी हमें बाह्य अर्थ का वास्तविक ज्ञान हो पाता है। बाह्य अर्थ का ज्ञान होना प्रमाण का फल है तथा उसके आकार का ज्ञान में प्रतिभास होना प्रमाण है।
बौद्ध दार्शनिक दिइनाग ने ज्ञान के व्यापारात्मक स्वरूप को प्रमाण कहकर उसके विषयाभास स्वरूप की ओर ही संकेत किया है। दिड्नाग कहते हैं कि जब बाह्य अर्थ प्रमेय होता है तो ज्ञान की विषयाकारता ही प्रमाण कही जाती है,क्योंकि उस प्रमेय का ज्ञान विषयाकारता से होता है। जैसे जैसे अर्थ का आकार शुक्लादि रूप से ज्ञान में प्रतिभासित होता है वैसे वैसे वह अर्थ शुक्लादि रूप में प्रतीत होता जाता है।५१
धर्मकीर्ति ने भी न्यायबिन्द में ज्ञान को प्रमाण एवं फल स्वीकार करते हए उसके द्वारा होने वाली अर्थप्रतीति को प्रमाण का फल तथा अर्थ-सारूप्य को प्रमाण कहा है।५२ प्रमाणवार्तिक में उन्होंने विषयाकारता को प्रमाण तथा अर्थ-संविद को प्रमाण-फल प्रतिपादित करते हुए उनका बाह्यार्थवाद के साथ विज्ञानवाद में भी व्यवस्थापन किया है । धर्मकीर्ति की रचना 'न्यायबिन्दु' पूर्णरूपेण सौत्रान्तिक मत को ज्ञापित करती है जबकि 'प्रमाणवार्तिक' में विज्ञानवाद का भी सम्यक् प्रतिपादन हुआ है। विज्ञानवाद के अनुरूप प्रमाण,प्रमेय एवं प्रमिति का व्यवस्थापन दिइनाग ने भी किया है, किन्तु धर्मकीर्ति ने उसको भलीभांति प्रतिष्ठित किया है।५४ धर्मकीर्ति कहते हैं 'इष्ट या अनिष्ट बाह्य अर्थ अपने सरूप ज्ञान का कारण होता हुआ उस ज्ञान का विषय बनता है, तब उस ज्ञान में इष्ट या अनिष्ट आकार के रूप में बाह्य अर्थ का अनुभव होता है । इस ज्ञान में विषय का सारूप्य प्रमाण तथा बाह्यार्थ
४७. अर्थसारूप्यमस्य प्रमाणम् ।-न्यायबिन्दु, १.२० ४८. अर्थप्रतीतिरूपत्वात् ।-न्यायबिन्दु, १.१९ ४९. सव्यापारप्रतीतत्वात् प्रमाण फलमेव सत् ।-प्रमाणसमुच्चय, १.९ ५०. विषयाकारतवास्य प्रमाणं तेन मीयते ।-प्रमाणसमुच्चय, १.१० ५१. यथा यथा ह्यर्थस्याकारः शुमादित्वेन ज्ञाने प्रतिभाति तत्तद्रूप: स विषयः प्रतीयते ।- दिङ्नाग वाक्य, उद्धृत Dignaga,
on perception, p. 104.44 एवं तत्त्वसंग्रहपञ्जिका, भाग-१, पृ.४८३-८४ ५२. द्रष्टव्य, उपर्युक्त पादटिप्पण ४७-४८ ५३. यदाभासं प्रमेयं तत्प्रमाणमथ तत्फलम् ।
ग्राहकाकारसंवित्ती त्रयं नात: पृथक् कृतम् ॥-प्रमाणसमुच्चय, १.११ ५४. द्रष्टव्य प्रमाणवार्तिक २.३२० से २.३७३.एक कारिका यथा
अविभागोऽपि बुदयात्मविपर्यासितदर्शनः । ग्राह्यग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ।।-प्रमाणवार्तिक,२.३५४
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