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________________ ३५४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा होने के कारण विशेषण से विशिष्ट होकर गृहीत नहीं होता है । १° धर्मकीर्ति के वृत्तिकार मनोरथनन्दी ने धर्मकीर्ति कृत सामान्यलक्षण-वर्णन के आधार पर स्वलक्षण को अनभिधेय, असाधारण, संकेतस्मरण से रहित, अर्थक्रियाक्षम आदि कहा है।" वाचस्पति मिश्र ने न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका देशः अनुगमन नहीं करने के कारण इसे परमार्थ एवं कालतः अनुगमन नहीं करने के कारण क्षणिक कहा है I संक्षेप में स्वलक्षण के स्वरूप को निम्नाङ्कित बिन्दुओं में रखा जा सकता है । १. यह सजातीय एवं विजातीय अर्थों से व्यावृत्त होने के कारण असाधारण होता है । २. . देश एवं काल में अनुगत नहीं होता। इसका देश में विस्तार नहीं होने से यह परमार्थसत् एवं काल में विस्तार नहीं होने से क्षणिक होता है । ३. यह अर्थक्रिया-सामर्थ्य से युक्त होता है । ४. यह शब्द द्वारा अनभिधेय एवं संकेतस्मरण से रहित होता है। सामान्यलक्षण न्याय-वैशेषिक दर्शन में 'सामान्य' को वास्तविक एवं प्रत्यक्ष-योग्य एक पृथक् पदार्थ माना गया है । बौद्ध दार्शनिक इसका खण्डन करते हैं । बौद्धदर्शन में प्रतिपादित 'सामान्यलक्षण' अर्थ काल्पनिक एवं अवस्तुरूप है। यह अनुमान प्रमाण का ग्राह्य विषय होता है । इसके माध्यम से स्वलक्षण अर्थ को प्राप्त किया जा सकता है अथवा अविसंवादी व्यवहार किया जा सकता है, इसलिए इसे संवृतिसत् कहा गया है। सामान्यलक्षण अर्थ स्वयं अर्थक्रिया में समर्थ नहीं होता, इसलिए इसे अवस्तु, अनर्थ आदि शब्दों से भी कहा गया है। ' ,१२ .१३ सामान्यलक्षण प्रमेय को धर्मकीर्ति ने तीन प्रकार का प्रतिपादित किया है। (१) भावाश्रय (२) अभावाश्रय एवं (३) उभयाश्रय । ३ रूपादि भावों के आधार पर कृतकत्वादि शब्दों द्वारा वाच्य लिङ्ग भावाश्रय सामान्य है । उपलब्धिलक्षण प्राप्त की अनुपलब्धि होना आदि अभावाश्रय सामान्य है भाव एवं अभाव में साधारण रहने वाले ज्ञेयत्व आदि उभयाश्रय सामान्य हैं । 1 धर्मकीर्ति प्रतिपादित करते हैं कि परमार्थसत् रूप से प्रमेय एक ही है - स्वलक्षण | किन्तु उसका ज्ञान स्वरूप से प्रत्यक्ष द्वारा एवं अनुमान से पररूप द्वारा होने के कारण प्रमेय को दो प्रकार का माना १०. सजातीयविजातीयव्यावृत्तार्थग्रहान्मत: । विशिष्टविषयो बोधो न विशेषणमङ्गते ॥ - तत्त्वसङ्ग्रह, १२७० ११. द्रष्टव्य, मनोरथनन्दिवृत्ति, प्रमाणवार्तिक, २.५१, पृ. ११६ १२. (१) सामान्यलक्षणं च ततो विपरीतम् । प्रमाणसुच्चय, पृ. ६ (२) अन्यत् संवृतिसत् प्रोक्तम् । प्रमाणवार्तिक, २.३ १३. सामान्यं त्रिविधम् तच्च भावाभावो भयाश्रयात् । प्रमाणवार्तिक, २.५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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