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षष्ठ अध्याय प्रमेय, प्रमाणफल और प्रमाणाभास गत अध्यायों में प्रमाण के स्वरूप एवं भेदों पर विचार करने के अनन्तर इस अध्याय में प्रमाण के विषय,फल एवं प्रमाणाभास पर संक्षेप में विचार किया जा रहा है । प्रमाण के विषय का दूसरा नाम प्रमेय है। 'प्रमातुं योग्यं प्रमेयम' (प्र उपसर्ग + मा धातु एवं यत् प्रत्यय से निष्पत्र प्रमेय) व्युत्पति के अनुसार प्रमाण द्वारा जानने योग्य पदार्थ को प्रमेय कहा जाता है । संख्या की दृष्टि से प्रमेय अनन्त हैं, क्योंकि जगत् में जितने भी द्रव्य या पदार्थ हैं, वे प्रमेय हैं। किन्तु प्रमेय का विभाजन वस्तुओं/द्रव्यों/पदार्थों की संख्या के आधार पर नहीं,अपितु उनकी स्वरूपगत विशेषताओं के आधार पर किया जाता है। इस दृष्टि से जैन एवं बौद्ध दर्शन में मौलिक मतभेद है । स्वरूप के आधार पर बौद्धदर्शन में जहां स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण के भेद से दो प्रमेय प्रतिपादित हैं वहां जैन दर्शन में सामान्यविशेषात्मक रूप में एक ही प्रमेय मान्य है। जगत् की वस्तुओं को संख्या की दृष्टि से अनन्तानन्त स्वीकार करके भी जैन दार्शनिक स्वरूप की दृष्टि से उन्हें सामान्यविशेषात्मक' ही मानते हैं। आकाश, अग्नि, पृथ्वी,टेबिल,कुर्सी आदि समस्त प्रमेय जैन दर्शन में सामान्यविशेषात्मक एवं नित्यानित्यात्मक हैं,जबकि बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण प्रमेय परमार्थसत् है एवं वह प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय है तथा सामान्यलक्षण प्रमेय संवृतिसत् है एवं न्यायवैशेषिकों के सामान्य से भिन्न है । वह अनुमानप्रमाण का विषय है। प्रत्यक्ष एवं अनुमान से भित्र कोई प्रमाण बौद्ध दर्शन में मान्य नहीं है। जैन दर्शन में मान्य प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण के समस्त भेदोपभेदों के लिए प्रमेय का एक ही स्वरूप है-सामान्यविशेषात्मक । अपेक्षा विशेष से इसे भेदाभेदात्मक,नित्यानित्यात्मक,भावाभावात्मक आदि शब्दों से भी अभिहित किया गया है। अब बौद्ध एवं जैन दर्शन में प्रतिपादित प्रमेय के स्वरूप का संक्षेप में विवेचन किया जा रहा है। बौद्ध दर्शन में द्विविध प्रमेय
. बौद्ध दार्शनिक मत में दो प्रमाणों की भांति दो ही प्रकार के प्रमेय मान्य हैं । दो प्रकार के प्रमेय हैं- १.स्वलक्षण और २. सामान्यलक्षण ।प्रत्यक्षप्रमाण का विषय स्वलक्षण है तथा अनुमानप्रमाण का विषय सामान्यलक्षण है । स्वलक्षण अर्थ परमार्थसत् एवं सामान्यलक्षण संवृतिसत् कहलाता है। सामान्यलक्षण के द्वारा भी स्वलक्षण की ही प्राप्ति होती है,इसलिए धर्मकीर्ति के अनुसार वस्तुतः प्रमेय एक ही प्रकार का है, और वह एक प्रमेय स्वलक्षण' अर्थ है । एकमात्र स्वलक्षण को प्रमेय मानने का कारण यह है कि वही अर्थक्रिया सामर्थ्य से युक्त होता है,और जो अर्थक्रिया में समर्थ है वही बौद्ध मत में सत् है । अर्थक्रियार्थी पुरुष अर्थक्रिया की सिद्धि के लिए स्वलक्षण के सत्त्व एवं असत्व का ही विचार करते हैं। उस एक प्रमेय के ही स्वरूप (स्वलक्षण) एवं पररूप (सामान्य लक्षण) की दृष्टि से दो भेद हो जाते हैं । यथा
तस्मादर्थक्रियासिद्धे, सदसत्ताविचारणात्। तस्य स्वपररूपाभ्यां, गर्मेयद्वयं मतम् ॥ प्रमाणवार्तिक, २.५४
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